सोमवार, 28 दिसंबर 2009

सृजन के बीज

(नये साल की पूर्व संध्या पर वर्ष की अन्तिम पोस्ट)
तुझमें जो आग है
उस आग को तू जलने दे
अपने सीने में उसे
धीरे-धीरे पलने दे...
भभक कर जलेगी
तो राख बन जायेगी
धुयें के साथ यूँ ही
आप से सुलगने दे...
उस पर आँसू न बहा
अश्क के छींटे मत दे
न अपने दिल को
इस आग में पिघलने दे...
.......
देख,
इक दिन ये आग
ज्वालामुखी बन जायेगी
हर सूखी, सड़ी-गली
चीज़ को जलायेगी
होता है ध्वंस तो फिर
एक बार हो जाने दे
बेकार चीज़ों को
इस आग में जल जाने दे
उनकी तू फ़िक्र न कर
राख पर जो रोते हैं
ध्वंस की राख में
सृजन के बीज छिपे होते हैं

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

अस्तित्व

मैं सोई थी
मीठे सपनों में
खोई थी
उस गहरी नींद से
जगा दिया
मैंने
अपने अस्तित्व को
तुममें मिला दिया था
तुमने
ठोकर लगाकर मुझे
मेरे अस्तित्व का
एहसास करा दिया.

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

तुम्हारा आना

(एक सच्चा प्यार किस तरह से किसी के अन्दर पूरी इन्सानियत के प्रति आस्था पैदा कर देता है...इस बात को व्यक्त करती सात साल पहले लिखी एक कविता...)

मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ बदल गया है
बदल गये हैं गीतों के मायने
वो मन की गहराइयों तक
उतरने लगे हैं
देने लगे हैं आवाज़
मेरी भावनाओं को
मानो मेरी ही बातें
कहने लगे हैं,
बदल गया है मौसम का अन्दाज़
वो बातें करता है मुझसे
चिड़ियों के चहकने से
बारिश के रिमझिम से
मेरे साथ हँसता-रोता है मौसम
पहले सा नहीं रहा,
बदल गयी मेरे पाँवों की थिरकन
मेरा बोलना, मेरा देखना
मैं खुद को ही अब
पहचान नहीं पाती
सब बदल गया है,
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ नया हुआ है
पहले की तरह अब
नहीं लगता डर मुझे
पुरुषों पर
कुछ-कुछ विश्वास हो चला है.

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

पर... ... माँ

ग़लती करती
तो डाँट खाती
दीदी से भी
और बाबूजी से भी
सब सह लेती
पर
सह न पाती माँ
तुम्हारा एक बार
गुस्से से आँखें तरेरना
..........................
कई तरह की
सज़ाएँ पायीं
मार भी खायी
कई बार
पर
नहीं भूलती माँ
तुम्हारी वो अनोखी सज़ा
कुछ भी न कहना
सभी काम करते जाना
एक लम्बी
चुप्पी साध लेना
........................
बाबूजी का लाड़
अपने जैसा था
भाई का प्यार भी
अनोखा था
बहन के स्नेह का
कोई सानी नहीं
पर
इन सबसे बढ़कर था माँ
थपकी देकर
सुलाते हुये तुम्हारा
मेरे सिर पर
हाथ फेरना.
......................

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

सन्नाटा

चारों तरफ़ सन्नाटा है
हालाँकि शोरगुल भी है
नारे भी हैं
चीखती-चिल्लाती आवाज़ें भी हैं
फिर भी सन्नाटा है
इसलिये कि
आवाज़ें नहीं उठतीं सबके लिये
उठती हैं सिर्फ़ अपने लिये,
इसलिये कि
कोई आवाज़
नहीं उठती उनके खिलाफ़
जिन्होंने खरीद लिया है
सभी की आवाज़ों को
अलग-अलग तरीकों से,
हम सभी की आवाज़ें
बिक गयी हैं
किसी न किसी के हाथों
हम सभी हो गये हैं गूँगे
और बेआवाज़
इसीलिये चारों तरफ़
सन्नाटा ही सन्नाटा है.

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

एक नारी की कविता

मेरी कविता
सायास नहीं बनायी जाती
भर जाता है जब
मन का प्याला
लबालब
भावों और विचारों से
तो निकल पड़ती है
अनायास यूँ ही
पानी के कुदरती
सोते की तरह
और मैं
रहने देती हूँ उसे
वैसे ही
बिना काटे
बिना छाँटे
मेरी कविता
अनगढ़ है
गाँव की पगडंडी के
किनारे पड़े
अनगढ़ पत्थर की तरह
आसमान में
बेतरतीब बिखरे
बादलों की तरह
जंगल में
खुद से उग आयी
झाड़ी के फूलों की तरह
अधकचरे अमरूद के
बकठाते स्वाद की तरह
मेरी कविता
नहीं मानना चाहती
शैली, छन्द और
लयों के बंधन
मेरी कविता
जैसी है
उसे वैसी ही रहने दो
सदियों से रोका गया है
बांध और नहरें बनाकर
आज
पहाड़ी नदी की तरह
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
उद्दाम वेग से बहने दो
बनाने दो उसे
खुद अपना रास्ता
टूटी-फूटी भाषा में
जो मन में आये
कहने दो.

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

हीरा

अपने बाबूजी की थी मैं
अनगढ़ हीरा
सँवारा,तराशा बनाया मुझे,
बनाकर मुझको
एक अनमोल हीरा
अपनी ही चमक से
चमकाया मुझे,
अपने माँ की थी मैं
जिद्दी बिटिया
डाँटा-डपटा, समझाया मुझे,
दुनियादारी की बातें बताकर
रानी बिटिया
बनाया मुझे,
जब बड़ी हुयी तो
बड़े जतन से
ऊँचे घराने में ब्याहा मुझे,
ससुराल आकर
कहीं खो गयी मैं,
मैं, मैं न रही
कुछ और हो गयी मैं,
मैं थी कहीं का पौधा
कहीं और
गड़ गयी हूँ,
ससुराल के कीमती गहनों में
जड़ गयी हूँ.

सोमवार, 30 नवंबर 2009

औरत पागल होती है (emotional fool)

तुमने नहीं किया वादा
ज़िन्दगी भर साथ निभाने का
फिर भी उसने
तुम्हारा साथ दिया,
प्यार करता हूँ
ये भी नहीं कहा तुमने
पर उसने शिद्दत से
तुम्हें प्यार किया
तुमने नहीं कहा
लौट के आने के लिये
तब भी उसने
इन्तज़ार किया
मिल गया तुम्हें कोई और साथी
पर उसे तुमसे शिकायत नहीं
अब भी वह
आस लगाये बैठी है
कि तुम कभी तो
कह दो उससे
कि तुमने
एक पल के लिये सही
एक बार उसे प्यार किया
मैं खीझ जाती हूँ
उसकी दीवानगी पर
धोखे पर धोखा खाती है
पर प्रेम में पागल हुई
जाती है
फिर सोचती हूँ
कि ये पागलपन न होता
तो कितने दिन चलती दुनिया,
छली पुरुष से त्रस्त
ये सृष्टि
औरतों के प्यार पर ही तो टिकी है
धोखा खाती है
और प्यार करती है
दर्द सहती है
और सृजन करती है
हाँ,
औरत पागल होती है
दीवानी होती है.

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

मेरी बच्ची

तुझे दूँगी वो सारी खुशियाँ
जो मुझे नहीं मिलीं
तेरी ज़िन्दगी को
ऐसे मैं संवारुँगी
तुझे रखूँगी
पलकों की छाँव में
ग़म की हर धूप से
बचा लूँगी
कैसे बचाउँगी
शैतानों की नज़रों से तुझे
अभी से सोचकर
डर लगता है
कि मेरी ही तरह तुझे भी
जाने क्या-क्या सहना होगा
पर अपनी पहचान बनाने के लिये
मेरी बच्ची
तुझे खुद ही लड़ना होगा
ज़िन्दगी की
कड़वी सच्चाइयाँ
रुलायेंगी तुझे
पर वे ही मुझ जैसा
मजबूत बनायेंगी तुझे

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

एक प्रौढ़ लड़की

रिसता है कुछ दिल से
आँखों के रास्ते
मन के ज़ख्मों के
टाँके टूट गये हैं
शायद,
बड़ी मुश्किल से
सुखाती हूँ इन्हें
फिर कोई
पूछ ही लेता है
घर के बारे में
माँ-पिता के बारे में
अजूबा सा लगता होगा
एक प्रौढ़ लड़की
बिना अभिभावक के
अकेले
कैसे काटती है
ज़िंदगी,
जी लेगी वो
अगर दुनिया
ना कुरेदे
उसके ज़ख्मों को

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

अधूरापन

कभी भावनाओं को
शब्द नहीं मिलते हैं
कभी शब्दों में
भाव नहीं
आ पाता है,
कभी खुशी में
दिल उदास होता है
कभी-कभी ग़म में भी
आराम आ जाता है
क्या हुआ?
हर बात अधूरी-सी
क्यों लगती है
ज़िन्दगी इतनी
उजड़ी उजड़ी-सी
क्यों लगती है?

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

राहत

जो हुआ अच्छा हुआ
कुछ राज़ सामने आ गए
अच्छे-भले लोग भी
अपना चेहरा
दिखा गए
भ्रम में जीने से
फुर्सत मिली
सच जानकर राहत मिली

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

तेरा प्यार

तेरा प्यार बहुत कुछ था
मेरे लिये
पर सब कुछ नहीं,
और भी बहुत कुछ है
दर्द है, तन्हाई है,
सूनापन है
और अन्धेरा भी,
बेशक चले जाओ तुम
पर तुम्हारी याद है
इतना सब कुछ है
दुनिया में
मेरे लिये

सोमवार, 21 सितंबर 2009

बादल के टुकड़े

मुट्ठी में
आकाश पकड़ना चाहा था
कुछ बादल के टुकड़े
मेरे हाथ लगे
हम अम्बर को देख
तरसते रहते हैं
ये बादल दिन-रात
बरसते रहते हैं

रविवार, 20 सितंबर 2009

टूटे सपने

टूटे सपनों की किरचें
बिखरी हैं
मन की फ़र्श पर
बटोरो तो चुभती हैं
हाथों में
ना देखो
तो पैरों में
देखो तो
आँखों में
इस कश्मकश के
पार उतार दे
कोई मेरे टूटे सपनों की
किरचें बुहार दे

शनिवार, 19 सितंबर 2009

घर

शाम ढलते ही
पंछी लौटते हैं 
अपने नीड़
लोग अपने घरों को
बसों और ट्रेनों में 
बढ़ जाती है भीड़
पर वो क्या करें 
जिनका घर हर साल ही 
बसता-उजड़ता है
यमुना की बाढ़ के साथ

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

सूखे फूलों को मत फेंको

सूखे फूलों को मत फेंको
हो सकता है इनमें से ही
बीज कोई धरती पर गिरकर
मिट्टी-पानी से मिलजुलकर
किसलय एक नया बन जाये
तरह-तरह के फूल खिलाये
सूने उपवन को महकाये
खत्म नहीं होती मिटकर भी
बीजों की ताकत को देखो
सूखे फूलों को मत फेंको

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

ज़िन्दगी फिर से

चारों ओर फैली है धुँध सी
फ़ीका चाँद, चाँदनी धुँधली
ज़िन्दगी के रंग धुल गये सारे
दुःखों की बदली में छुप गये तारे,
टूटे-फूटे अरमानों की
फूस बटोर
उम्मीदों की चिंगारी को ढूँढ़
हौसलों की आग जला ली जाये,
आओ!
ज़िंदगी फिर से
जी ली जाये.

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

अबकी सावन में
नहीं आयी हथेलियों से
मेहंदी की खुशबू
नहीं बरसे बादल
झूले नहीं पड़े पेड़ों पर
अबकी सावन में
नहीं जा सकी घर
रोजी-रोटी के चक्कर में

शनिवार, 11 जुलाई 2009

एक छोटे शहर की लड़की (२)

रिक्शे पर बैठी जो हमेशा
सखियों के साथ
बस की भीड़ में आज
धक्के खाती है,
शाम को कमरे पर आकर
एक-एक पैसे का
हिसाब लगाती है,
पढाई भी करती है
काम पर भी जाती है,
परम्परा और आधुनिकता में
मेल बैठाती है
महानगर की लड़कियों से
अलग नज़र आती है
एक छोटे शहर की लड़की
जब महानगर में आती है
धीरे-धीरे
भोली-भाली सकुचाई से
सयानी बन जाती है.

महानगर

मन घबराता है,
समझ में नहीं आता कहाँ जायें ?
महानगर के आकाश में
चाँद भी साफ नहीं दिखता,
जिसे देखकर कोई
कविता लिखी जाये.

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

एक छोटे शहर की लड़की (१)

एक छोटे शहर की लड़की
आँखों में हज़ारों सपने लिए
आती है महानगर में,
अकेली लड़ती है
अपने अस्तित्व को
मिटने से बचाने के लिए,
एक पहचान हो उसकी भी
बस इतना चाहती है,
और इसके लिए
रोज़
एक नया गुर
सीखती जाती है।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

एक छोटा सा घर

चाह है एक छोटे से घर की
जिसकी दीवारें बहुत ऊँची न हो
ताकि हवाएँ बिना रोक-टोक
इधर से उधर जा सकें

एक छोटा सा घर

चाह है एक छोटे से घर की
जिसकी दीवारें बहुत ऊँची न हो
ताकि हवाएँ बिना रोक-टोक
इधर से उधर जा सकें

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

पहचान


इस भीड़ में चेहरे हैं बहुत
पर कोई पहचाना
चेहरा नहीं मिलता.
चेहरों के पीछे चेहरें हैं
और उसके भी पीछे चेहरे
अपनों के बीच भी कोई
अपना नहीं मिलता.
क्यूँ अपनी पहचान को
छिपाते हैं यहाँ लोग
जो जहाँ जैसा है क्यूँ
वैसा नहीं मिलता.

सोमवार, 11 मई 2009

माँ ... ...!


जिंदगी यूँ ही चलती जाती है
बिना किसी सहारे के
जैसे तैरता हो कोई पत्ता
समुद्र की लहरों पे
आती है जब-जब भी
तूफ़ान की आहट
एक शब्द आता है
होठों पर
माँ ...
कट जाते हैं रास्ते
कठिन हों कितने ही
ठोकर लगती है
तो याद आती है
माँ ...
माँ की आँखें दिए की लौ सी हैं
माँ की बातें गीता जैसी हैं
माँ है तो सारी खुशियाँ हैं
बिन माँ के हर खुशी अधूरी है
लौट सकती हो तो लौट आओ
माँ ...
तुम बिन जिंदगी अधूरी है ...















सोमवार, 4 मई 2009

शीर्षकहीन

आज मुझे अपना ब्लॉग लिखते हुए लगभग चार महीने हो गए हैं और पहली बार मैं कविता नहीं लिख रही हूँ । मुझ पर किसी ने किसी अन्य की कविता से 'ऊर्जा 'उधार लेने का इल्जाम लगाया है । बस ,इसे सीधे-सीधे चोरी न कहकर एक सभ्य सा शब्द रख दिया । मैं किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती ,हो सकता है कि उनका उद्देश्य मुझे दुःख पहुँचाना न रहा हो ,पर मुझे दुःख हुआ तो मैंने कह दिया .ऐसे ही जैसे मैं अनायास ही कविता कह जाती हूँ .

शनिवार, 2 मई 2009

सोचकर तो देखें (मजदूर-दिवस पर)

कभी सोचते हैं हम
फाइव-स्टार होटलों में
छप्पन-भोग खाने से पहले
कि कितने ही लोग
एक जून रोटी के बगैर
तड़प-तड़प के मरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
आलीशान मालों में
कीमती कपड़े खरीदने से पहले
कि कितने बच्चे और बूढे
फटे -चीथड़े लपेटे
गर्मी में झुलसते
सर्दी में ठिठुरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों को
सैकड़ों लीटर पानी से
नहलाने से पहले
कि इसी देश के किसी कोने में
लोग बूँद-बूँद पानी को तरसते हैं ।

सोचते हैं हम कि
अकेले हमारे सोचने से
क्या फर्क पड़ेगा
कभी सोचकर तो देखें
एक बार तो मन ठिठकेगा...


(यह कविता पिछले वर्ष मजदूर दिवस पर लिखी थी...आज भी कुछ नहीं बदला है...और आगे भी शायद नहीं बदलेगा...पर, क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ??)

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ओस

गीली रात में उतरती है
फूलों पर ओस
हौले से छूकर उसे मुस्कुराती है
पंखुरी बिठा लेती है
अपनी पीठ पर उसे
और धीरे-धीरे-झूला झुलाती है
प्रेम का पावन रूप
पल्लवित होता है
ऐसी ही निःशब्द विभावरी में
जब पेड़ों के झुरमुट से
चाँदनी झर-झर के आती है

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

स्त्रियाँ सो रहीं हैं

स्त्रियाँ सो रहीं हैं
सुलाया गया है उन्हें सदियों से
थपकी देकर
असुरक्षा का झूठा हौव्वा खड़ा करके
डराया गया है
कि यदि वे जागेंगी
तो दिखेंगे भयावह दृश्य
और क्रूर यथार्थ से होगा सामना
इस डर से स्त्रियाँ
सो रहीं हैं
सोने से ही आते हैं
सुंदर सपने
एक छोटे से घर ,सुख-सुविधा
रंग-बिरंगे संसार के सपने
स्त्रियाँ जब कसमसाती हैं
जागने के लिए
तो उन्हें मीठी गोली देकर
फिर से सुला दिया जाता है
पर सोते-सोते ही अब
बदल गए हैं उनके सपने
देखने लगी हैं वे
जहाज उड़ाने और
अन्तरिक्ष में जाने के सपने
सोते-सोते ही वे बन गयीं हैं
डॉक्टर ,इंजिनियर
फिर भी अभी
स्त्रियाँ सो रहीं हैं
जब जागेंगी वे तो होगी
अर्ध-नारीश्वर के बाएं अंगों में फड़कन
क्योंकि वे भी तो
दायें हाथ से ही करते थे
सारा शुभ कार्य
और अशुभ कार्य बाएँ हाथ से
स्त्रियाँ जब जागेंगी तो होगा हाहाकार
टूटेंगी बेडियाँ ,खुलेंगे कारागार
होगी इतनी हलचल की
हिल उठेगा आसमान
क्योंकि जब जागेंगी स्त्रियाँ
तो जागेगा
सोया हुआ आधा संसार

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

अपनी राह पर

मेरी किस्मत में
नहीं थी चाँदी की चम्मच
और मखमली कालीन
थे पथरीले काँटों से भरे रास्ते
जिन पर झाड़-झंखाड़ को हटाकर
ख़ुद ही चलना था मुझे

मेरी किस्मत में नहीं थी
माँ की ममता की छाँव
और पिता के प्यार का साया
दुःख और मुश्किलों की धूप में
तपते रहना और जलना था मुझे

पर ...मुझे
किस्मत से कोई शिकायत नहीं
आख़िर ...उसने ही तो मुझे
ख़ुद अपनी राह बनाना सिखाया
धीरज रखना और दुःख सहना सिखाया

ठोकरें खा-खाकर
सख्त़ और सख्त़ बनती जा रही हूँ मैं
ख़ुद अपनी राह पर
बिना किसी सहारे चलती जा रही हूँ मैं ।

रविवार, 5 अप्रैल 2009

मेरे सपनों में घर

मेरे सपनों में
आता है जो घर वो सपनों का घर नहीं
मेरा अपना घर है ,
वो घर, जिसे पिताजी ने बड़े अरमानों से बनाया था
हम भाई -बहनों ने
उसका कोना-कोना सजाया था,

वो घर, जिसकी खिड़की से दिखती थी बँसवारी
और दूर तक फैले खेत
जिसकी छत पर चाँदनी रातों में हम करते थे घंटों बातें,
छूट गया वो घर मुझसे
पिताजी के जाने के बाद,
रह गई उस घर की, उन खेतों -खलिहानों की याद
अब वो घर आता है अक्सर मेरे सपनों में,
और आँसुओं से भीग जाता है मेरा तकिया

... ... तीन साल हुए घर गए
सोचती हूँ कब और कैसे वहाँ जाऊँगी
पिताजी को बरामदे में चारपाई पर बैठा न पाकर
ख़ुद को कैसे सँभाल पाऊँगी?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

तुम्हारे जाने के बाद

फूल सभी मुरझा गए
सूरज बुझ गया
चिडियाँ गूँगी हो गयीं
सन्नाटा फैल गया सब ओर 
दिशाएँ सूनी हो गयीं
रंगों से भरा ये संसार
कब हो गया फीका -फीका सा
मुझे कुछ भी नहीं याद
कि देखी हैं कब बहारें मैंने
तुम्हारे जाने के बाद
 ... ... ...

तुम्हारे होने से
फैल जाती थी
हवाओं में महक और
गुनगुना उठती थीं पेड़ों की पत्तियाँ
सारा संसार लगता था
अपना -अपना सा
जगता था अपने अस्तित्व की
पूर्णता का अहसास
आज अधूरी हो गई हूँ मैं
तुम्हारे जाने के बाद ।

प्रश्न

औरत के प्रश्न /समाज को /विचलित क्यों कर देते हैं /क्यों लगता है कि इससे /चरमरा जाएगा /समाज का ढांचा /और परिवार नाम की संस्था /ध्वस्त हो जायेगी /समाज और परिवार को /बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी /अगर औरत की है /तो क्यों खामोश है वो /प्रश्न क्यों नहीं करती /जो जैसा है ,ठीक है /यह मानकर /चुप क्यों रह जाती है ।

रविवार, 22 मार्च 2009

विकल्प

उसने चाही थी स्वतंत्रता
किया संघर्ष
ख़ुद से ,समाज से ,परिवार से
आज वह
स्वतन्त्र है
स्वावलंबी है
पर सुखी नहीं
पूरी तरह सुरक्षित नहीं
क्योंकि वह औरत है
अपने सीमित विकल्पों के साथ ।

मंगलवार, 17 मार्च 2009

धूल

धूल साथी है
मेहनतकश मजदूरों की, गरीबों की,
बड़े घरों की शानदार बैठकों में
धूल नहीं होती ,
उसे रगड़-रगड़कर
साफ़ कर दिया जाता है,

धूल में होते हैं
अनेक रोगाणु -कीटाणु,
जैसे शहर की झोपड़पट्टियों में पलते
कीड़ों जैसे गंदे-बिलबिलाते लोग
नाक बहाते, थूक गिराते बच्चे,


झोपड़पट्टियाँ...
शानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

लड़कियाँ और कुकुरमुत्ते

लड़कियाँ गाँधीजी के तीन बंदरों का
जीवंत प्रतिरूप हैं
न देखती हैं ,न सुनती हैं ,न कहती हैं
लड़कियाँ पाली नहीं जाती
कूड़े के ढेर पर पलने वाले कुकुरमुत्तों की तरह
ख़ुद ही पलती और बढती रहती हैं।

लड़कियाँ बहनें ,बेटियाँ ,पत्नी और माँ हैं
लड़कियाँ ख़ुद कहाँ हैं?

कोई नहीं सोचता
कि लड़कियाँ सोच सकती हैं
इसलिए उनकी कोई पसंद, कोई ख़्वाहिश नहीं होती।

लड़कियों को बताया जाता है
कि वे सोचने के लिए नहीं करने के लिए हैं
और इसीलिए
लड़कियाँ करती रहती हैं
झाडू ,पोछा ,बर्तन,खाना
जो भी उनसे कहा जाता है।
शादी से पहले पिता के घर
शादी के बाद पति के यहाँ बस करती ही रहती हैं,
न देखती हैं ,न सुनती हैं ,न कहती हैं
कूड़े के ढेर पर उगने वाले कुकुरमुत्तों की तरह
उगती ,पलती ,बढती और मरती रहती हैं। ... ...

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

तुम आए मेरे जीवन में

तुम आए मेरे जीवन में ऐसे ...
सालों से सूखे ठूंठ में सहसा
उग आयीं हो नयी कोंपलें जैसे...
तुम आए मेरे जीवन ऐसे
महुए की मदिर गंध फागुन में
फैल गयी हो वन-उपवन में जैसे...
तुम आए मेरे जीवन में ऐसे
जलती -तपती धरती पर बरसी हों
घिर-घिर के घनघोर घटाएं जैसे...
तुम आए मेरे जीवन में ऐसे
थककर बैठे क्लांत पथिक के सम्मुख
तीर्थ स्वयं चलकर आया हो जैसे

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

सखी

मेरी सखी
हँसती-गुनगुनाती रहती
सारा दिन
सपने सजाती
अपनी शादी के
मुझसे करती
ढेरों बातें
शादी के बाद
उसकी हँसी खो गई
उसकी चूडियों की खनखनाहट में
उसका गुनगुनाना
पायल की झंकार में मिल गया
अब वो मिलती है मुझे
सिर्फ़ मेरे सपने में
हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाहती हूँ उसे
हाथ में आती है
उसकी पायल ,चूड़ी ,मंगलसूत्र
वो नहीं मिलती
जाने कहाँ कहीं खो गई
एक बड़े घर की बहू बनकर रह गई मेरी सखी
शादी के बाद
औरतें सखी नहीं होती
शादी के बाद
औरतों की सखियाँ
कहीं खो जाती हैं ।

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

एक औरत और समाज, परिवार वगैरह

एक औरत...
कैसे देखे सपना
आसमान छूने का
जबकि उसकी पूरी ज़िंदगी
गुज़र जाती है
तलाशते हुए अपने हिस्से की ज़मीन
एक औरत...
कैसे लड़े समाज के लिए
जबकि उसको प्रतिदिन लड़ना पड़ता है
ख़ुद समाज से
एक औरत ...
क्या कर सकती है
बेघरों के लिए
जबकि ख़ुद सारा जीवन
ढूँढती रहती है अपना घर
एक औरत ...कैसे सोचे संसार के बारे में
जबकि उसका परिवार ही बन जाता है
उसका संसार ... ...

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

प्यार क्या है (वैलेंटाइन डे पर विशेष )

(वैलेंटाइन डे मनाना चाहिए या नहीं मैं इस विवाद में नहीं पडूँगी . मुझे जो त्यौहार अच्छा लगता है मना लेती हूँ .ये तो रही मेरी बात .समाज के लिहाज से इस बहाने प्रेम जैसे वर्जित विषय पर हमारे यहाँ चर्चा हो जाती है ,ये एक सकारात्मक बात है .इसलिए मैं भी एक कविता लिख रही हूँ ,जो प्रेमियों को पसंद आएगी .कविता लम्बी है ,अतः अंशतः ही छाप रही हूँ।... ... ... ... ... ... ... एक भड़कता शोला /एक ठंडी आग /एक दर्दीली खुशी /एक खुशनुमा दर्द /फूलों की खुशबू /काँटों का हार /क्या यही है प्यार ?/...एक चुभती नज़र /एक मीठी मुस्कान /एक भोली सी हँसी /एक आँसुओं का उफान /शाम का धुंधलका /सुबह का ख़ुमार /क्या यही है प्यार? /... कभी रंगीनियों की महफ़िल /और महफ़िल में तन्हाई /कभी मिलना किसी का /और मिलन में जुदाई /विरह का पतझड़ /मिलन की बहार /क्या यही है प्यार ?... कभी बातें ही बातें /कभी चुप बैठे रहना /कभी सब कुछ कह जाना /कभी कुछ भी न कहना /उनकी एक झलक को /घंटों इंतज़ार /क्या यही है प्यार ?... कभी ख़ुद से बातें करना /कभी हँसना गुनगुनाना /वो बात-बात पर रूठना /और देर तक मनाना /इज़हार इनकार /इक़रार तक़रार/क्या यही है प्यार ?... वो छुप-छुपकर देखना /दिख जाने पर छुपना /वो उनकी बेरुखी पर /बेवज़ह रोना-सिसकना /चल देना नाराज़ होकर /फिर मुड़ना इक बार /क्या यही है प्यार ?...एक अनजानी मंज़िल/एक अनचीन्ही राह /साथ चलने की हसरत /पास आने की चाह /वो बारिश का मौसम /और पेड़ों की आड़ /क्या यही है प्यार ?... वो नदी का किनारा /उसे देखना एकटक /हाथों में हाथ लेकर /टहलना दूर तक /सर्दी की धुप /गरमी की छाँव /क्या यही है प्यार ?... ... ... ... ... ... ... ... ... कभी लड़ने का साहस /कभी रुसवाई का डर /कभी घर में हंगामा /कभी दुनिया का कहर /दो मासूम दिल /और दुश्मन हज़ार /क्या यही है प्यार ?

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

प्रेम और पूजा

प्रेम किया है मैंने /पूजा नहीं /जो अपने आपको /तुम्हारे कदमों में /गिरा दूँगी /साथ रहोगे /तो साथ दूँगी /अपनी मौत तक /चले जाओगे छोड़कर /तो तुम्हारा नाम /दिल की स्लेट से /मिटा दूँगी ।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

वसंत में बरसात

सुबह-सुबह /मन कुछ उदास था /बदली मेरे साथ हो गई /कंत नहीं हैं पास मेरे तो /वसंत में /बरसात हो गई,/ भीगा मौसम /मैं भी भीगी /ना जाने क्या बात हो गई /कल तक मौसम खुशगवार था /और आज /बरसात हो गई।

मैं अकेली

क्यों जीवन के मोड़ पर /हर बार /छूट जाता है एक साथी /क्यों ममता का कोमल स्पर्श /मुझे नहीं मिला कभी /जिन्होंने देखे थे /मेरे भविष्य के लिए सपने /एक-एक कर छूटते गए सभी /रह गई मैं अकेली /शून्य में तैरती /सन्नाटों में बिखरती /...विधाता तूने मेरी नियति /कौन सी लेखनी से लिखी ?

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

भूख से मरने वालों की ख़बर (1)

कल रात
बड़ी मुश्किल से टूटा
मेरे हाथ से रोटी का कौर
सब्जी मुँह में पड़ते ही
ज़हर सी लगी,
रेडियो में आ रही थी ख़बर
भूख से मरने वालों की ,
मेरी आँखों में पानी आ गया
और मुँह से निकली इक आह
कि हे ईश्वर,
तू या तो सबको भरपेट खाना देता
या मुझे देता सामर्थ्य
उनकी मदद करने की,
ये सोचते-सोचते मैंने
पूरा खाना खा लिया,
और मुझे मालूम है
कि मैं उसे पचा भी लूँगी ,
 ठीक उसी तरह
जैसे उस ख़बर को पचा लिया,
क्योंकि ...भूख से मरने वालों की ख़बर
हमारे लिए सिर्फ़ ख़बर है
जिसे हम सुनते हैं
अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं
और भूल जाते हैं ।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

चलो मीठा सा गीत कोई गुनगुनाएं

जाके बीते ज़माने में आज फिर से /चलो बचपन की यादों को बीन लायें /भूलकर ज़िंदगी की परेशानियाँ /चलो मीठा सा गीत कोई गुनगुनाएं /.......चलो पलटें पुरानी किताबों को आज /बिछड़े यारों की फोटो को फिर से देखें ,/बंद हैं घर के बक्से में बरसों से जो /उन चिठ्ठियों और कार्डों को फिर से देखें ,/अपनी बगिया के फूलों को पानी डालें /छत पे जाकर कबूतर को दाना खिलाएं ,/चलो मीठा सा गीत कोई गुनगुनाएं ... ... /दम घुटता रहा साँस फूलती रही /पिछले दरवाजे को कब से खोला नहीं ,/रात में आँसू बनकर बहती है जो /बात दिल में रही कभी बोला नहीं ,/खोलकर आज दिल के दरवाजों को /ताजी हवा के झोकों में झूम जायें, /चलो मीठा सा गीत कोई गुनगुनाएं ... ।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

औरत होने का सुख

भीगी आँखों के /धुंधले परदे के पीछे से /मैंने देखा था /उसकी भी आँखें /गीली थीं /पर वो ठहरा मर्द /रोता कैसे ?/ तो पी गया वो /अपने सारे आँसू/पर मैं रोई /रो -रोकर /अपने ख़त्म होते रिश्ते के /दर्द को मैंने /आँसुओं में बहा दिया /और ...पहली बार /अपने औरत होने का सुख /महसूस किया /रोना ,फूट-फूटकर रोना /यही तो औरतें / आज़ादी से कर पाती हैं /और शायद / इसी कारण /बड़ा से बड़ा दर्द / सह जाती हैं।

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

संस्कृति के पहरुए

संस्कृति रक्षा के नाम पर /युवतियों का सरेआम अपमान करने वालों /पहले भारतीय संस्कृति को जानो /तुम प्रेम का विरोध करते हो /तो जाओ अभिज्ञान शाकुंतलम पढ़ो/जो विश्व -प्रसिद्ध /उन्मुक्त प्रेम की गाथा है /'अमरुक -शतक 'पढ़ो /जिसका एक-एक छंद /प्रेमरस से भरी रसभरी है /और जो संस्कृत काव्यशास्त्रियों की /आँख का तारा है/ मदिरा का विरोध करते हो /तो पहले वेद पढ़ो /जहाँ सोम की देवता के रूप में /स्तुति की गई है /और .../शंकर भगवान् को /भंग -धतूरा चढ़ाना छोड़ दो /जाओ चुनाव लड़ो/सरकार बनाओ /और कर दो शराब -बंदी /पूरे राज्य में /सारे ठेकों के लाइसेंस /जब्त कर लो /जो भी करो /इस लोकतान्त्रिक देश में /सब जायज है /अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर /पर इसकी सीमा /तुम्हारी नाक के आगे/ख़त्म हो जाती है/... ...प्रेम तो मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है /संस्कृति रक्षा के नाम पर /इस पावन भावना को /मत रोको /याद रखो /प्रेम करने वाले /आतंकवादी ,बलात्कारी ,या हत्यारे /नहीं होते /और इससे पहले /कि तुम्हारे हमलों कि प्रतिक्रिया में /वे ऐसे हो जाएँ /प्रेम पर पहरा लगना /बंद कर दो।

ग्लोबल वार्मिंग

संबंधों के बीच से /गरमी उड़ गई /उड़कर हवाओं में घुल गई /अब सुन रहे हैं वातावरण की /हो रही है ग्लोबल वार्मिंग /जिसके लिए दुनिया के ठेकेदार /कर रहे हैं मीटिंग /दुनिया को गर्म होने से कैसे बचाएं /सब के मन में यही सवाल है /पर उस ओर नहीं किसी का ध्यान है /कि जहाँ संबंधों में गर्माहट /जितनी कम है /वहाँ की हवा उतनी ही गर्म है /और चूँकि हवाओं के लिए /कोई सीमा नहीं / वे चल देती हैं उस ओर /जहाँ की हवा अभी ठंडी है / और संबंधों में गर्मी है /धीरे -धीरे ऐसे ही /धरती गर्म होती जायेगी /और... ... /उत्तरी ध्रुव पर पिघलने वाली बर्फ /संबंधों के बीच जम जायेगी ।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

लालकिला और केवट -बस्ती

टूटी खटिया,फूटी हाँडी/एक अदद फटी कथरी /जिस पर हर हफ्ते ही /पैबंद लगाया जाता है ।/ पेट फुलाए, दुबले -पतले /गंदे -अधनंगे बच्चे /जिनको इस एक कथरी पर /इक साथ सुलाया जाता है । /दिन भर में बस एक जून ही /घर में खाना पकता है /दिन भर में बस एक बार /ये चूल्हा जलाया जाता है। /देश चलाने वालों एक दिन /केवट -बस्ती में आकर देखो /घोर अभावों में भी जीवन /कैसे बिताया जाता है। / राजपथ पर परेड भी होगी /झाँकी होगी ,बाजे भी /इन्हें नहीं मालूम /गणतंत्र दिवस कैसे मनाया जाता है। लालकिले से केवट -बस्ती की /दूरी को जल्दी पाटो/बापू का इक मन्त्र आज/फिर -फिर यह दोहराता है ।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

योग्यतम की उत्तरजीविता

ज़िन्दा रहने के लिए /मनुष्य के शरीर को /चाहिए ऊर्जा /ऊर्जा के लिए भोजन / और भोजन के लिए ईंधन/ईंधन के लिए है लकड़ी की ज़रूरत /और इसीलिये /हरे पेड़ों का कटना जारी है /यही है योग्यतम की उत्तरजीविता /कि किसी एक के ज़िन्दा रहने के लिए /किसी दूसरे का मरना ज़रूरी है .

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

बड़ी होती हुयी लड़की

अपने ही घर में वह डरती है /और अंधेरे में नहीं जाती /हर पल उसकी आँखों में /रहता है खौफ का साया /जाने किस खतरे को सोचकर /अपने में सिमटी रहती है /रास्ते में चलते -चलते /पीछे मुड़कर देखती है /बार -बार /और किसी को आता देख /थोड़ा किनारे होकर /दुपट्टे को सीने पर /ठीक से फैला लेती है /गौर से देखो /पहचानते हो इसे /ये मेरे ,तुम्हारे /हर किसी के /घर या पड़ोस में रहती है /ये हर घर -परिवार में /बड़ी होती हुयी लड़की है /... ... आओ हम इसमें /आत्मविश्वास जगा दें /अपने हक के लिए /लड़ना सिखा दें /हम चाहे चलें हों /झुक -झुककर सिमटकर /पर अपनी बेटियों को /तनकर चलना सिखा दें .

भूखा कवि

सच ही कहा है किसी कवि ने /कि भूखे को चाँद /रोटी का टुकड़ा नज़र आता है /और तारे दिखते हैं /चाँदी के सिक्कों जैसे /पर भूखे के लिए /चाँद में रोटी की कल्पना करने वाला /भूखा कवि /ख़ुद चाँद में /अपनी प्रेमिका की छवि /देखकर रोता है /इसीलिए कवि , कवि है /और वह दुनिया से /जुदा होता है .

Blogvani.com - Indian Blog Aggregator

Blogvani.com - Indian Blog Aggregator

सोमवार, 19 जनवरी 2009

मुक्ति

आदर्श नारी की परिभाषा गढ़ते /समाज के ठेकेदारों से ,/बेटों को महिमामंडित करते /व्रतों और त्योहारों से ,/ प्रतिभा को कुंठित करने वाले/ बंद समाजों से, /दहेज़ ,भ्रूण -हत्या जैसे /सड़े-गले रीति -रिवाजों से, /नारी को नारीत्व प्रदान करते /"ब्यूटी-प्रोडक्ट्स" से, / बेटियों को घर में बंद करने वाले /"कोड ऑफ़ कंडक्ट"से, /बिंदिया से ,काजल से ,/पायल से ,करधन से ,/चूड़ी की खन-खन से, /बाजूबंद और कंगन से, /झूठी सज-धज से ,/बनावटी बनठन से, /मुझे चाहिए मुक्ति /अनुशासन से नहीं /बंधन से .

रविवार, 18 जनवरी 2009

वीभत्स

एक लड़की ही जान सकती है
कैसा होता है अनपेक्षित नज़रों को झेलना
चुभ उठी हों ज्यों
शरीर में हजारों सूइयाँ,
कैसा होता है अनचाहा स्पर्श
रेंग रहे हों जैसे लाखों बिच्छू
भूरे ,काले ,ज़हरीले...

घिन से भर उठता है मन
जब कभी भीड़ में
छू जाती हैं शरीर को, अनजाने पुरूष की उँगलियाँ,
गिजगिजाती बजबजाती छिपकली की तरह,
तब अपने ही शरीर का वह हिस्सा
लगने लगता है पराया
मन होता है काटकर फेंक दूँ
अजनबी पुरुष की छाया

सभी लड़कियाँ जिंदगी भर
सहती हैं ये घृणित पीड़ा
बसों में ,रेल में ,
भीड़ में ,अकेले में,
बाहर और घर में
अब मुझसे नहीं सहा जाता...

लेकिन शब्दों की सीमा होती है
इस घृणित अनुभव को
इससे वीभत्स शब्दों में
कहूँ तो कैसे ?

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

सभ्य समाज

सरे राह होता है
एक लड़की के साथ बलात्कार
कहते हैं समाज के ठेकेदार
ग़लती लड़की की है
कि वो रात में क्यों निकली
घर से बाहर।
आपको अचरज हुआ ?
क्या भूल गए? ये कोई नई बात तो नहीं
हमारा समाज एक सभ्य समाज है
यहाँ अपहरण रावण करता है
अग्निपरीक्षा देती है सीता
यहाँ जुए में पांडव हारते हैं
और चीर हरण होता है द्रौपदी का।  .

मन विद्रोही -2

माँ कहती थी /सूनी राहों पर मत निकलो /क़दम क़दम पर यहाँ भेड़िये/ घात लगा बैठे रहते हैं ./मैं चुप रहती /और सोचती /ये दुनिया है या है जंगल ./अब माँ नहीं जो मुझको रोके /कोई नहीं जो मुझको टोके ,/मैं स्वंतत्र हूँ ,अपनी मालिक /किसी राह भी जा सकती हूँ ,/लेकिन अब भी माँ की बातें /हर दिन याद किया करती हूँ /सूनी राहों से डरती हूँ /और अंधेरे से बचती हूँ ./कंचे खेलना ,पतंग उड़ाना/अब लगती है बातें बीती /जाने किस कोने जा बैठा /मेरा अड़ियल मन विद्रोही .

बुधवार, 14 जनवरी 2009

मन विद्रोही

माँ कहती थी -ज़ोर से मत हँस
तू लड़की है,
धीरे से चल
अच्छे घर की भली लड़कियाँ
उछल -कूद नहीं करती हैं
मैं चुप रहती
माँ की बात मान सब सहत,
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही
हँसता जाता ,चलता जाता
कंचे खेलता ,पतंग उड़ाता
डोर संग ख़ुद भी उड़ जाता
तुम लड़के हो,
तुम क्या जानो
कैसे जीती है वो लड़क,
जिसका अपना तन है बंदी
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही .

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

कविताओं का उगना

पेड़ ,चाहे बबूल का ही क्यों न हो /पत्थर पर नहीं उगता /उसके लिए चाहिए ज़मीं ,रेतीली ही सही /और चाहिए थोड़ा सा पानी /कवितायें ,चाहे स्वप्नलोक की सैर कराने वाली हों /या कठोर यथार्थ पर लिखीं /नरम दिल से ही निकलती हैं /कविताओं के उगने के लिए /चाहिए थोड़ी मिट्टी/और थोड़ा पानी / चिलचिलाती धूप सही , गर्म हवा के थपेड़े भी /धूल भरे झंझावात /सूखा मौसम /औरत होने के ताने भी /दुनिया के इस रेगिस्तान में ख़त्म होती रिश्तों के बीच गरमी /पर इसके बाद भी /नहीं गई दिल की नरमी /मेरा मन अब भी है गीली मिट्टी /कविताओं के उगने के लिए तैयार ... ... ... ...

रविवार, 11 जनवरी 2009

काश

काश मैं उड़ पाती / तो उड़ जाती खुले गगन में दूर तक /चली जाती इंसानों की दुनिया से परे/ वहां, जहाँ कोई भी न हो/सिर्फ़ मैं /और शून्य.

शनिवार, 10 जनवरी 2009

घोंसला

चुन-चुन कर लाऊँगी तिनके/ और उनको करीने से डाली पर लगा दूंगी / बाँध दूंगी दूब की डोर से उसे / इस तरह आंधी-पानी से बचा लूंगी / अपने नर्म पंखों में बच्चों को छिपाकर/भविष्य नया दूँगी / चिड़िया ही सही माँ हूँ मैं / एक घोंसला मैं भी बना लूंगी ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

अनछुई कली

तुमने मेरी ठोडी को हौले से उठाकर कहा 
अनछुई कली हो तुम
मैं चौंकी
पर क्यों?
ये झूठ तो नहीं                                                                                                                                                       
तन और मन से पवित्र
मैं कली हूँ अनछुई 
और तुम भंवरे
मैं स्थिर, तुम चंचल
प्रेम की राह में दोनों बराबर
तो मैं ही अनछुई क्यों रहूँ ? 
भला बताओ 
तुम्हें अनछुआ भंवरा क्यों न कहूँ ?