गुरुवार, 30 सितंबर 2010

रूसी कवि "येव्गेनी येव्तुशेंको" की एक कविता

हे भगवान !
कितने झुक गए हैं स्त्री के कंधे
मेरी उँगलियाँ धँस जाती हैं
शरीर में उसके भूखे, नंगे
और आँखें उस अनजाने लिंग की
चमक उठीं
वह स्त्री है अंततः
यह जानकर धमक उठीं
      फिर उन अधमुंदी आँखों में
      कोहरा सा छाया
      सुर्ख अलाव की तेज अगन का
      भभका आया
      हे राम मेरे ! औरत को चाहिए
      कितना कम
      बस इतना ही
      कि उसे औरत माने हम

(भाषांतर: अनिल जनविजय, "स्त्री: मुक्ति का सपना" पुस्तक से साभार )

शनिवार, 25 सितंबर 2010

गुलाम स्त्रियों की मुक्ति का पहला गीत

(एन्तीपैत्रोस यूनान के सिसरो के काल के प्राचीनतम कवियों में से एक हैं. ये गीत उन्होंने अनाज पीसने की पनचक्की के आविष्कार पर लिखा था क्योंकि इस यंत्र के बन जाने के बाद औरतों को हाथ चक्की के श्रम से छुटकारा मिला था. 
यह कविता श्रम-विभाजन से सम्बंधित प्राचीन काल के लोगों और आधुनिक काल के लोगों के विचारों के परस्पर विरोधी स्वरूप को भी स्पष्ट करती है. कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध कृति "पूँजी" के पहले खंड पर इस कविता का उल्लेख किया है.)

आटा पीसने वाली लड़कियों,
अब उस हाथ को विश्राम करने दो,
जिससे तुम चक्की पीसती हो,
और धीरे से सो जाओ !

मुर्गा बांग देकर सूरज निकलने का ऐलान करे
तो भी मत उठो !

देवी ने अप्सराओं को लड़कियों का काम करने का आदेश दिया है,
और अब वे पहियों पर हलके-हलके उछल रही हैं
जिससे उनके धुरे आरों समेत घुम रहे हैं
और चक्की के भारी पत्थरों को घुमा रहे हैं.
आओ अब हम भी पूर्वजों का-सा जीवन बिताएँ
काम बंद करके आराम करें
और देवी की शक्ति से लाभ उठाएँ.

(कविता "स्त्री: मुक्ति एक सपना" पुस्तक से साभार. कविता का प्रस्तुतीकरण और टिप्पणी: रश्मि चौधरी)

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

बड़की भौजी

उसका ब्याह तब हुआ
जब उसे मालूम भी नहीं था
कि वो एक औरत है,
लाल साड़ी में लिपटी ससुराल आयी
वापस गयी बरसों बाद
जैसे यहीं नाल गड़ी हो उसकी,
... ...
उसे कोई शिकायत नहीं थी
वो रोज़ सुबह उठकर नन्हे हाथों से
जांते में गेहूँ डालती
और अपनी ख्वाहिशों को
पिस-पिसकर ज़मीन पर गिरते देखती,
तवे पर पड़ी रोटी
जब फूलकर गुब्बारा हो जाती
तो उसके चेहरे पर चमक आ जाती थी,
... ...
वो हँसती रहती
मानो सारी परेशानियों को
सूप से पछोरकर उड़ा दिया हो
दुखों को बुहार दिया हो
और चिंताओं को फेंक दिया हो
चावल के कंकड़ों के साथ बीनकर,
... ...
इच्छाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ क्या होती हैं?
उसे नहीं पता
वो कुछ नहीं सोचती
और ना कुछ कहती अपने बारे में,
अपनी छोटी सी दुनिया में खुश,
निश्चिंत, खिलंदड़ और हँसमुख बड़की भौजी को
चूल्हे के धुँए की आड़ में
अपने आँसुओं को छिपाते पकड़ा
"लकड़िया ओद हौ, धुअँठैले"
बचपने में ब्याह
खेल-खेल में
तीन लड़कियाँ हो गयीं हैं उसकी... ...

(नीचे वाला चित्र मेरी सहेली चैंडी के कैमरे से, ऊपर वाला फ्लिकर के सौजन्य से)