औरतों के प्रश्न करते ही
हिल उठती हैं बुनियादें परिवारों की
चरमरा उठता है समाज का ढाँचा,
या तो ज़रूरत से ज़्यादा
विध्वंसक हैं स्त्री के प्रश्न
या कहीं अधिक खोखली और कमज़ोर है
नींव घर-परिवार और समाज की,
तो क्या करें?
प्रश्न उठाना छोड़ दें,
या तोड़ दें उन रवायतों को
जो उठ खड़ी होती हैं हर बार
औरतों के विरुद्ध
उनके अधिकारों के प्रश्न पर,
या कर लें समझौता उस व्यवस्था से
जो अपनी ही आधी आबादी के प्रति
अपनाती है दोहरा रवैया,
देकर उसे समाज में दोयम दर्ज़ा
छीन लेती है
प्रश्न करने का अधिकार।
हिल उठती हैं बुनियादें परिवारों की
चरमरा उठता है समाज का ढाँचा,
या तो ज़रूरत से ज़्यादा
विध्वंसक हैं स्त्री के प्रश्न
या कहीं अधिक खोखली और कमज़ोर है
नींव घर-परिवार और समाज की,
तो क्या करें?
प्रश्न उठाना छोड़ दें,
या तोड़ दें उन रवायतों को
जो उठ खड़ी होती हैं हर बार
औरतों के विरुद्ध
उनके अधिकारों के प्रश्न पर,
या कर लें समझौता उस व्यवस्था से
जो अपनी ही आधी आबादी के प्रति
अपनाती है दोहरा रवैया,
देकर उसे समाज में दोयम दर्ज़ा
छीन लेती है
प्रश्न करने का अधिकार।
Un ritiyon ko tod dijiye... jo ek naari ke samman aur aan ki raksha na kare...!!!
जवाब देंहटाएंUn ritiyon ko tod dijiye... jo ek naari ke samman aur aan ki raksha na kare...!!!
जवाब देंहटाएंek dam sateek
जवाब देंहटाएंशायद समझौता कोई हल नहीं ... पर सतत संघर्ष में साथ छोड़ने लगता है मन कभी कभी ...
जवाब देंहटाएंसार्थक सटीक रचना है .... मन के भाव लिखे हैं ...
पुरानी रीतिओं तोड़ने के बाद जो नई रीतियाँ बनेंगी ..क्या वो इस से अधिक सुरक्षित होंगी ?
जवाब देंहटाएंक्या इस बात की गारंटी है ?
हाँ, जो भी नयी रीतियाँ होंगी वो बराबरी पर आधारित होंगी. क्योंकि पुरानी रीतियाँ मर्दों ने अपनी सहूलियतों के हिसाब से बनायी थीं.
हटाएंविवाह तब भी होंगे. परिवार तब भी होंगे. औरतें बच्चा तब भी पैदा करेंगी, लेकिन उनको अपने निर्णय लेने की आज़ादी होगी. औरतें ये तय कर सकेंगी कि वो शादी करें या न करें और करें तो कब और किससे करें. बच्चे कितने पैदा करें और चाहे वो लड़का हो या लड़की उसे समान भाव से पालें....
और हाँ, ये भी कि अगर घर के अन्दर और बाहर औरतें सुरक्षित होंगी तो भ्रूण-हत्याएँ भी नहीं होंगी.
परिवार में निर्णय की आजादी किसी को नहीं होती। पहले समस्या को समझना जरूरी है। अतिरेक बुरा होता है।
हटाएंनारी की मूल रूप में चाहिए; पहला - बोलने की आजादी और फिर हमबिस्तर होने के लिए 'न' कहने की आजादी। ये दो मूल समस्यायें हैं। विचार करिए। बराबरी की शुरूआत यहीं से हो सकती है।
आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 13/04/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंप्रश्न किए जाएंगे तभी उत्तर मिलेंगे। बहुत सुन्दर। बधाई।
जवाब देंहटाएंसटीक रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंपधारें "आँसुओं के मोती"
क्रांतिकारी विचार.
जवाब देंहटाएंwww.kahekabeer.blogspot.in पर भी जाएं
संवेदनशील रचना अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसार्थक अवलोकन
वाकई स्त्री जो सहती है,वह कह नहीं पाती
संवेदना की तह तक जाती रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
बहुत सुन्दर और संवेदनशील अभिव्यक्ति | आभर
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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कोई नहीं है हमारा यहाँ ,
जवाब देंहटाएंहै मतलबी यह सारा जहाँ।