सोमवार, 26 जनवरी 2009
लालकिला और केवट -बस्ती
टूटी खटिया,फूटी हाँडी/एक अदद फटी कथरी /जिस पर हर हफ्ते ही /पैबंद लगाया जाता है ।/ पेट फुलाए, दुबले -पतले /गंदे -अधनंगे बच्चे /जिनको इस एक कथरी पर /इक साथ सुलाया जाता है । /दिन भर में बस एक जून ही /घर में खाना पकता है /दिन भर में बस एक बार /ये चूल्हा जलाया जाता है। /देश चलाने वालों एक दिन /केवट -बस्ती में आकर देखो /घोर अभावों में भी जीवन /कैसे बिताया जाता है। / राजपथ पर परेड भी होगी /झाँकी होगी ,बाजे भी /इन्हें नहीं मालूम /गणतंत्र दिवस कैसे मनाया जाता है। लालकिले से केवट -बस्ती की /दूरी को जल्दी पाटो/बापू का इक मन्त्र आज/फिर -फिर यह दोहराता है ।
शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
योग्यतम की उत्तरजीविता
ज़िन्दा रहने के लिए /मनुष्य के शरीर को /चाहिए ऊर्जा /ऊर्जा के लिए भोजन / और भोजन के लिए ईंधन/ईंधन के लिए है लकड़ी की ज़रूरत /और इसीलिये /हरे पेड़ों का कटना जारी है /यही है योग्यतम की उत्तरजीविता /कि किसी एक के ज़िन्दा रहने के लिए /किसी दूसरे का मरना ज़रूरी है .
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
बड़ी होती हुयी लड़की
अपने ही घर में वह डरती है /और अंधेरे में नहीं जाती /हर पल उसकी आँखों में /रहता है खौफ का साया /जाने किस खतरे को सोचकर /अपने में सिमटी रहती है /रास्ते में चलते -चलते /पीछे मुड़कर देखती है /बार -बार /और किसी को आता देख /थोड़ा किनारे होकर /दुपट्टे को सीने पर /ठीक से फैला लेती है /गौर से देखो /पहचानते हो इसे /ये मेरे ,तुम्हारे /हर किसी के /घर या पड़ोस में रहती है /ये हर घर -परिवार में /बड़ी होती हुयी लड़की है /... ... आओ हम इसमें /आत्मविश्वास जगा दें /अपने हक के लिए /लड़ना सिखा दें /हम चाहे चलें हों /झुक -झुककर सिमटकर /पर अपनी बेटियों को /तनकर चलना सिखा दें .
भूखा कवि
सच ही कहा है किसी कवि ने /कि भूखे को चाँद /रोटी का टुकड़ा नज़र आता है /और तारे दिखते हैं /चाँदी के सिक्कों जैसे /पर भूखे के लिए /चाँद में रोटी की कल्पना करने वाला /भूखा कवि /ख़ुद चाँद में /अपनी प्रेमिका की छवि /देखकर रोता है /इसीलिए कवि , कवि है /और वह दुनिया से /जुदा होता है .
सोमवार, 19 जनवरी 2009
मुक्ति
आदर्श नारी की परिभाषा गढ़ते /समाज के ठेकेदारों से ,/बेटों को महिमामंडित करते /व्रतों और त्योहारों से ,/ प्रतिभा को कुंठित करने वाले/ बंद समाजों से, /दहेज़ ,भ्रूण -हत्या जैसे /सड़े-गले रीति -रिवाजों से, /नारी को नारीत्व प्रदान करते /"ब्यूटी-प्रोडक्ट्स" से, / बेटियों को घर में बंद करने वाले /"कोड ऑफ़ कंडक्ट"से, /बिंदिया से ,काजल से ,/पायल से ,करधन से ,/चूड़ी की खन-खन से, /बाजूबंद और कंगन से, /झूठी सज-धज से ,/बनावटी बनठन से, /मुझे चाहिए मुक्ति /अनुशासन से नहीं /बंधन से .
रविवार, 18 जनवरी 2009
वीभत्स
एक लड़की ही जान सकती है
कैसा होता है अनपेक्षित नज़रों को झेलना
चुभ उठी हों ज्यों
शरीर में हजारों सूइयाँ,
कैसा होता है अनचाहा स्पर्श
रेंग रहे हों जैसे लाखों बिच्छू
भूरे ,काले ,ज़हरीले...
घिन से भर उठता है मन
जब कभी भीड़ में
छू जाती हैं शरीर को, अनजाने पुरूष की उँगलियाँ,
गिजगिजाती बजबजाती छिपकली की तरह,
तब अपने ही शरीर का वह हिस्सा
लगने लगता है पराया
मन होता है काटकर फेंक दूँ
अजनबी पुरुष की छाया
सभी लड़कियाँ जिंदगी भर
सहती हैं ये घृणित पीड़ा
बसों में ,रेल में ,
भीड़ में ,अकेले में,
बाहर और घर में
अब मुझसे नहीं सहा जाता...
लेकिन शब्दों की सीमा होती है
इस घृणित अनुभव को
इससे वीभत्स शब्दों में
कहूँ तो कैसे ?
कैसा होता है अनपेक्षित नज़रों को झेलना
चुभ उठी हों ज्यों
शरीर में हजारों सूइयाँ,
कैसा होता है अनचाहा स्पर्श
रेंग रहे हों जैसे लाखों बिच्छू
भूरे ,काले ,ज़हरीले...
घिन से भर उठता है मन
जब कभी भीड़ में
छू जाती हैं शरीर को, अनजाने पुरूष की उँगलियाँ,
गिजगिजाती बजबजाती छिपकली की तरह,
तब अपने ही शरीर का वह हिस्सा
लगने लगता है पराया
मन होता है काटकर फेंक दूँ
अजनबी पुरुष की छाया
सभी लड़कियाँ जिंदगी भर
सहती हैं ये घृणित पीड़ा
बसों में ,रेल में ,
भीड़ में ,अकेले में,
बाहर और घर में
अब मुझसे नहीं सहा जाता...
लेकिन शब्दों की सीमा होती है
इस घृणित अनुभव को
इससे वीभत्स शब्दों में
कहूँ तो कैसे ?
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
सभ्य समाज
सरे राह होता है
एक लड़की के साथ बलात्कार
कहते हैं समाज के ठेकेदार
ग़लती लड़की की है
कि वो रात में क्यों निकली
घर से बाहर।
आपको अचरज हुआ ?
क्या भूल गए? ये कोई नई बात तो नहीं
हमारा समाज एक सभ्य समाज है
यहाँ अपहरण रावण करता है
अग्निपरीक्षा देती है सीता
यहाँ जुए में पांडव हारते हैं
और चीर हरण होता है द्रौपदी का। .
एक लड़की के साथ बलात्कार
कहते हैं समाज के ठेकेदार
ग़लती लड़की की है
कि वो रात में क्यों निकली
घर से बाहर।
आपको अचरज हुआ ?
क्या भूल गए? ये कोई नई बात तो नहीं
हमारा समाज एक सभ्य समाज है
यहाँ अपहरण रावण करता है
अग्निपरीक्षा देती है सीता
यहाँ जुए में पांडव हारते हैं
और चीर हरण होता है द्रौपदी का। .
मन विद्रोही -2
माँ कहती थी /सूनी राहों पर मत निकलो /क़दम क़दम पर यहाँ भेड़िये/ घात लगा बैठे रहते हैं ./मैं चुप रहती /और सोचती /ये दुनिया है या है जंगल ./अब माँ नहीं जो मुझको रोके /कोई नहीं जो मुझको टोके ,/मैं स्वंतत्र हूँ ,अपनी मालिक /किसी राह भी जा सकती हूँ ,/लेकिन अब भी माँ की बातें /हर दिन याद किया करती हूँ /सूनी राहों से डरती हूँ /और अंधेरे से बचती हूँ ./कंचे खेलना ,पतंग उड़ाना/अब लगती है बातें बीती /जाने किस कोने जा बैठा /मेरा अड़ियल मन विद्रोही .
बुधवार, 14 जनवरी 2009
मन विद्रोही
माँ कहती थी -ज़ोर से मत हँस
तू लड़की है,
धीरे से चल
अच्छे घर की भली लड़कियाँ
उछल -कूद नहीं करती हैं
मैं चुप रहती
माँ की बात मान सब सहत,
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही
हँसता जाता ,चलता जाता
कंचे खेलता ,पतंग उड़ाता
डोर संग ख़ुद भी उड़ जाता
तुम लड़के हो,
तुम क्या जानो
कैसे जीती है वो लड़क,
जिसका अपना तन है बंदी
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही .
तू लड़की है,
धीरे से चल
अच्छे घर की भली लड़कियाँ
उछल -कूद नहीं करती हैं
मैं चुप रहती
माँ की बात मान सब सहत,
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही
हँसता जाता ,चलता जाता
कंचे खेलता ,पतंग उड़ाता
डोर संग ख़ुद भी उड़ जाता
तुम लड़के हो,
तुम क्या जानो
कैसे जीती है वो लड़क,
जिसका अपना तन है बंदी
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही .
मंगलवार, 13 जनवरी 2009
कविताओं का उगना
पेड़ ,चाहे बबूल का ही क्यों न हो /पत्थर पर नहीं उगता /उसके लिए चाहिए ज़मीं ,रेतीली ही सही /और चाहिए थोड़ा सा पानी /कवितायें ,चाहे स्वप्नलोक की सैर कराने वाली हों /या कठोर यथार्थ पर लिखीं /नरम दिल से ही निकलती हैं /कविताओं के उगने के लिए /चाहिए थोड़ी मिट्टी/और थोड़ा पानी / चिलचिलाती धूप सही , गर्म हवा के थपेड़े भी /धूल भरे झंझावात /सूखा मौसम /औरत होने के ताने भी /दुनिया के इस रेगिस्तान में ख़त्म होती रिश्तों के बीच गरमी /पर इसके बाद भी /नहीं गई दिल की नरमी /मेरा मन अब भी है गीली मिट्टी /कविताओं के उगने के लिए तैयार ... ... ... ...
रविवार, 11 जनवरी 2009
काश
काश मैं उड़ पाती / तो उड़ जाती खुले गगन में दूर तक /चली जाती इंसानों की दुनिया से परे/ वहां, जहाँ कोई भी न हो/सिर्फ़ मैं /और शून्य.
शनिवार, 10 जनवरी 2009
घोंसला
चुन-चुन कर लाऊँगी तिनके/ और उनको करीने से डाली पर लगा दूंगी / बाँध दूंगी दूब की डोर से उसे / इस तरह आंधी-पानी से बचा लूंगी / अपने नर्म पंखों में बच्चों को छिपाकर/भविष्य नया दूँगी / चिड़िया ही सही माँ हूँ मैं / एक घोंसला मैं भी बना लूंगी ।
गुरुवार, 8 जनवरी 2009
अनछुई कली
तुमने मेरी ठोडी को हौले से उठाकर कहा
अनछुई कली हो तुम
मैं चौंकी
पर क्यों?
ये झूठ तो नहीं
तन और मन से पवित्र
मैं कली हूँ अनछुई
और तुम भंवरे
मैं स्थिर, तुम चंचल
प्रेम की राह में दोनों बराबर
तो मैं ही अनछुई क्यों रहूँ ?
भला बताओ
तुम्हें अनछुआ भंवरा क्यों न कहूँ ?
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