उसके होने से ही
पावन है घर-आँगन,
उसकी चंचल चितवन
मोह लेती हम सबका मन,
वो रूठती
तो रुक जाते हैं
घर के काम सभी,
वो हँसती
तो झर उठते हैं
हरसिंगार के फूल,
महक उठता है
घर का कोना-कोना,
जाने कैसे हैं वे लोग
जो बेटियों को
जन्मने ही नहीं देते
हम तो सह नहीं सकते
अपनी बेटी का
एक पल भी घर में न होना .
( ये कविता मेरी दीदी की बेटी शीतल के लिये है. वो मुझे बहुत प्यारी है और अपनी माँ की तरह ही मुझे मानती है. मैं जब भी दीदी के घर जाती हूँ, तो महसूस करती हूँ कि बेटियों का घर में होना कैसा अनुभव है. वो जब तक स्कूल में रहती है, सारा घर उदास रहता है और उसके आते ही मानों घर-आँगन नाच उठता है. आज उसकी बहुत याद आ रही है.)
शनिवार, 30 जनवरी 2010
बुधवार, 27 जनवरी 2010
आज़ादी का मतलब
कौन है क़ैद?
कौन आज़ाद?
कैसे तय करें?
कुछ बन्धन
जिन्हें हम
समझते हैं क़ैद
उनसे आज़ाद होकर
पाते हैं खुद को
ठगा सा,
फिर तड़पते हैं
वापस
उन्हीं बन्धनों में
बँधने के लिये,
रह जाते हैं हम
इस मकड़जाल में
उलझकर,
हमें
आज़ादी का मतलब
समझना ही होगा.
कौन आज़ाद?
कैसे तय करें?
कुछ बन्धन
जिन्हें हम
समझते हैं क़ैद
उनसे आज़ाद होकर
पाते हैं खुद को
ठगा सा,
फिर तड़पते हैं
वापस
उन्हीं बन्धनों में
बँधने के लिये,
रह जाते हैं हम
इस मकड़जाल में
उलझकर,
हमें
आज़ादी का मतलब
समझना ही होगा.
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
नमन
जिसने मुझे
उँगली पकड़कर
चलना नहीं सिखाया
कहा कि खुद चलो
गिरो तो खुद उठो,
जिसने राह नहीं दिखाई मुझे
कहा कि चलती रहो
राह बनती जायेगी,
जिसने नहीं डाँटा कभी
मेरी ग़लती पर
लेकिन किया मजबूर
सोचने के लिये
कि मैंने ग़लत किया,
जिसने कभी नहीं फेरा
मेरे सिर पर हाथ
दुलार से
पर उसकी छाँव को मैंने
प्रतिपल महसूस किया,
जिसने खर्च कर दी
अपनी पूरी उम्र
और जमापूँजी सारी
मुझे पढ़ाने में
दहेज के लिये
कुछ भी नहीं बचाया,
आज नमन करता है मन
उस पिता को
जिसने मुझे
स्त्री या पुरुष नहीं
इन्सान बनकर
जीना सिखाया.
उँगली पकड़कर
चलना नहीं सिखाया
कहा कि खुद चलो
गिरो तो खुद उठो,
जिसने राह नहीं दिखाई मुझे
कहा कि चलती रहो
राह बनती जायेगी,
जिसने नहीं डाँटा कभी
मेरी ग़लती पर
लेकिन किया मजबूर
सोचने के लिये
कि मैंने ग़लत किया,
जिसने कभी नहीं फेरा
मेरे सिर पर हाथ
दुलार से
पर उसकी छाँव को मैंने
प्रतिपल महसूस किया,
जिसने खर्च कर दी
अपनी पूरी उम्र
और जमापूँजी सारी
मुझे पढ़ाने में
दहेज के लिये
कुछ भी नहीं बचाया,
आज नमन करता है मन
उस पिता को
जिसने मुझे
स्त्री या पुरुष नहीं
इन्सान बनकर
जीना सिखाया.
बुधवार, 20 जनवरी 2010
विश्वास
जब-जब तुमने कहा
"तुम मेरी हो"
मुझे लगा
मैं चीज़ हूँ कोई
जब-जब तुमने कहा
"मैं तुम्हारा हूँ"
मैंने महसूस किया
एहसान कर रहे हो तुम
और जब तुमने कहा
"हम बने हैं एक-दूजे के लिये"
मुझे ये प्यार नहीं
व्यापार लगा
इतने बरस बाद भी
मुझे तुम्हारे प्यार पर
विश्वास क्यों नहीं?
"तुम मेरी हो"
मुझे लगा
मैं चीज़ हूँ कोई
जब-जब तुमने कहा
"मैं तुम्हारा हूँ"
मैंने महसूस किया
एहसान कर रहे हो तुम
और जब तुमने कहा
"हम बने हैं एक-दूजे के लिये"
मुझे ये प्यार नहीं
व्यापार लगा
इतने बरस बाद भी
मुझे तुम्हारे प्यार पर
विश्वास क्यों नहीं?
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
बचकाना सा एक सपना
मेरा एक सपना है
कि मैं दिल्ली की
रिंग रोड को
देख सकूँ रात को
कैसी लगती हैं
बंद दुकानें और रेस्टोरेंट
खाली सड़कें
बिना ट्रैफिक की,
बैठ जाऊँ मैं
सड़क के डिवाइडर पर
और लिखूँ
एक कविता,
मेरा यह सपना
बचकाना लग सकता है,
इसे पूरा होने में
लग सकते हैं वर्षों,
पर पूरा होगा ज़रूर,
देखना एक दिन आएगा
जब एक अकेली लड़की
शहर की सड़कों पर
रात को घूम सकेगी
बेखौफ़ होकर
कि मैं दिल्ली की
रिंग रोड को
देख सकूँ रात को
कैसी लगती हैं
बंद दुकानें और रेस्टोरेंट
खाली सड़कें
बिना ट्रैफिक की,
बैठ जाऊँ मैं
सड़क के डिवाइडर पर
और लिखूँ
एक कविता,
मेरा यह सपना
बचकाना लग सकता है,
इसे पूरा होने में
लग सकते हैं वर्षों,
पर पूरा होगा ज़रूर,
देखना एक दिन आएगा
जब एक अकेली लड़की
शहर की सड़कों पर
रात को घूम सकेगी
बेखौफ़ होकर
बुधवार, 6 जनवरी 2010
पूर्ण समर्पण
प्रिय, तुमने कहा था मुझसे
कि तुम मुझको
पाना चाहते हो
पूरी तरह से
तब मैं
तुम्हारे "पूरी तरह से" का
मतलब नहीं समझ पायी थी
अब जान गयी हूँ
मैं तैयार हूँ
कर दूँगी मैं
पूर्ण समर्पण
दे दूँगी तुमको ये तन
इसमें क्या रखा है
कर सकती हूँ
तुम पर अर्पण
सौ-सौ जीवन
क्योंकि मैंने
तुमको चाहा था
और चाहती हूँ
पूरी तरह से
पर नहीं था मालूम मुझे
कि तुमने मुझको
आधा ही चाहा था
और पूरी तरह से
तब चाहोगे
जब तुम मुझको
मेरी देह सहित
"पूरी तरह" से पा जाओगे.
कि तुम मुझको
पाना चाहते हो
पूरी तरह से
तब मैं
तुम्हारे "पूरी तरह से" का
मतलब नहीं समझ पायी थी
अब जान गयी हूँ
मैं तैयार हूँ
कर दूँगी मैं
पूर्ण समर्पण
दे दूँगी तुमको ये तन
इसमें क्या रखा है
कर सकती हूँ
तुम पर अर्पण
सौ-सौ जीवन
क्योंकि मैंने
तुमको चाहा था
और चाहती हूँ
पूरी तरह से
पर नहीं था मालूम मुझे
कि तुमने मुझको
आधा ही चाहा था
और पूरी तरह से
तब चाहोगे
जब तुम मुझको
मेरी देह सहित
"पूरी तरह" से पा जाओगे.
शनिवार, 2 जनवरी 2010
चुप्पी
हम तब भी नहीं बोले थे
जब एक टीचर ने
बुलाया था उसे स्टाफ़रूम में
अकेले
और कुत्सित मानसिकता से
सहलायी थी उसकी पीठ
डरी-सहमी वह
रोती रही
सिसकती रही
...
हम तब भी नहीं बोले
जब बीच युनिवर्सिटी में
खींचा गया था
उसका दुपट्टा
और वह
हाथों से सीने को ढँके
लौटी हॉस्टल
फिर वापस कभी
युनिवर्सिटी नहीं गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब तरक्की के लिये
माँगी गयी उसकी देह
वह नहीं बिकी
एक नौकरी छोड़ी
दूसरी छोड़ी
तीसरी छोड़ी
और फिर बिक गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब रुचिका ने की आत्महत्या
जेसिका, प्रियदर्शिनी मट्टू
मार दी गयी
उनके हत्यारे
घूमते रहे
खुलेआम
...
हम आज भी नहीं बोले
जब इसी ब्लॉगजगत में
सरेआम एक औरत का
होता रहा
शाब्दिक बलात्कार
और हम चुप रहे
हम चुप रहे
चुप... ...
जब एक टीचर ने
बुलाया था उसे स्टाफ़रूम में
अकेले
और कुत्सित मानसिकता से
सहलायी थी उसकी पीठ
डरी-सहमी वह
रोती रही
सिसकती रही
...
हम तब भी नहीं बोले
जब बीच युनिवर्सिटी में
खींचा गया था
उसका दुपट्टा
और वह
हाथों से सीने को ढँके
लौटी हॉस्टल
फिर वापस कभी
युनिवर्सिटी नहीं गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब तरक्की के लिये
माँगी गयी उसकी देह
वह नहीं बिकी
एक नौकरी छोड़ी
दूसरी छोड़ी
तीसरी छोड़ी
और फिर बिक गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब रुचिका ने की आत्महत्या
जेसिका, प्रियदर्शिनी मट्टू
मार दी गयी
उनके हत्यारे
घूमते रहे
खुलेआम
...
हम आज भी नहीं बोले
जब इसी ब्लॉगजगत में
सरेआम एक औरत का
होता रहा
शाब्दिक बलात्कार
और हम चुप रहे
हम चुप रहे
चुप... ...
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