धूल साथी है
मेहनतकश मजदूरों की, गरीबों की,
बड़े घरों की शानदार बैठकों में
धूल नहीं होती ,
उसे रगड़-रगड़कर
साफ़ कर दिया जाता है,
धूल में होते हैं
अनेक रोगाणु -कीटाणु
जैसे शहर की झोपड़पट्टियों में पलते
कीड़ों जैसे गंदे-बिलबिलाते लोग,
झोपड़पट्टियाँ...
शानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।
बड़े घरों में धुल का नाम-ओ निशां नहीं होता ;) धुल तो पहचान होती है मेहनतकश मजदूरों की :)
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज चर्चा मंच पर भी है...
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html
झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।
ye baat apne aap bahut bada vyang hai ...aadmi aadmi ko hi na jane kab dhool mitti samjhne lagta hai ...jameen se zara upar uthe nahi ki ..mitti bhool jate hain .. :(
झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए...
बहुत सापेक्ष व्यंग है...इन झोपडपट्टियों पर ही तो राजनीति होती है...
बेहतरीन व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंधूल' साथी है/पहचान है मेहनतकश की..
जवाब देंहटाएंपरन्तु महानगरों के स्लम की तुलना मजदूर के झोंपड़े से नहीं की जानी चाहिए.
इनके[स्लम निवासियों ] पुनर्वास की योजनाएं बन तो रही हैं ,बनी हैं.लेकिन इन्हें में से कई लोग खुद ही ,जो मकान सरकार इन्हें देती है उसे किराये पर चढा कर फिर उसी झोंपड़े में आ बसते हैं.उदाहरण के लिए एक कमरे के फ्लेट की डी डी ए की स्कीम और मुम्बई की स्कीम देखें.
[स्लम में रहने वाले सभी मजदूर नहीं होते हैं.]
महानगरों से स्लम हटाना 'मजदूरों को हटाना 'नहीं कहा जायेगा.
झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।
बहुत ही धारदार व्यंग्य उतर आया है शब्दों में...
मत भूलो कि
जवाब देंहटाएंहम धूल हैं माना
पर जो ठोकर मारोगे तो हमें अपनी आंखों में
और सिर पर पाओगे।
@ अल्पना जी,
जवाब देंहटाएंमैं आपकी बात से सहमत हूँ... मुम्बई के स्लम अब एक राजनीतिक केन्द्र बन गए हैं...क्योंकि वो बहुत पुराने और संगठित हैं. पर और जगहों पर ऐसी बात नहीं है. मैंने मुम्बई का स्लम धारावी बहुत करीब से देखा है. आज से लगभग ग्यारह साल पहले वहाँ की कई खोलियों में फ्रिज, टी.वी., वी.सी.आर. ही नहीं ए.सी. भी थे... और दिल्ली के यमुना के आसपास बसी झोपड़पट्टियां भी देखी हैं, जो धारावी की तरह पक्की नहीं हैं... प्लास्टिक शीट, त्रिपाल आदि से बनी ये झोपड़ पट्टियाँ हर साल बाढ़ में उजड़ती हैं...और लोग बेघर होकर रैन बसेरों में आश्रय लेते हैं...
इसका कारण यहाँ लोग संगठित नहीं हैं...इनमें रिक्शा वाले, छोटे-छोटे वर्कशाप में काम करने वाले या खोमचे और ठेलिया लगाने वाले हैं. ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर भी तो आखिर मजदूर ही हैं ना. बस अंतर यही है कि ये फैक्ट्री में काम नहीं करते. लोकल ना होने की वजह से इनके पास वोटर आई कार्ड नहीं है. इसलिए वोट बैंक नहीं हैं और इनकी हैसियत धूल-मिट्टी जैसी ही है.
दिल दिमाग पर चढ़ी धूल कब साफ होगी। शहरों से गरीबों का सफाया औऱ जंगलों से आदिवासियों का सफाया करने का अभियान तो पूरे जोर-शोर से चल रहा है। मजदूरों की बात अब कौन करता है। मंहगाई का यही हाल रहा तो निम्न मध्यम वर्ग को भी मजदूर बनते देर नहीं लगेगी। धूल तो सारे सिस्टम में है।
जवाब देंहटाएंव्यंग्य का ये रंग भी कितना गहरा निकला...
जवाब देंहटाएंबधाई.
"झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।"
जोरदार तालिया... आपकी इन बेहतरीन पन्क्तियो के लिये.
झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।
बहुत ही सुन्दर रचना ।
झोपड़पट्टियाँ...
जवाब देंहटाएंशानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए..
bahut hi uchit kahi .
देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर.बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंbahut khoob
जवाब देंहटाएंअच्छा है। सुन्दर!
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