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मंगलवार, 25 जनवरी 2011

बेटी के घर से लौटना / चंद्रकांत देवताले

जो लोग आधुनिक कविता को जानते हैं, उन्हें चंद्रकांत देवताले के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है और जो लोग जानना चाहते हैं, वे यहाँ से कुछ जानकारियाँ पा सकते हैं. मैं आधुनिक हिन्दी साहित्य के विषय में अधिक नहीं जानती और इत्मीनान से साहित्य पढ़ने का कभी मौका नहीं मिला, लेकिन नारी-विमर्श में रूचि होने के कारण समय-समय पर औरतों के बारे में और औरतों के द्वारा लिखी हुयी कविताएँ पढ़ने को मिलती रहती हैं.
चंद्रकांत जी की औरतों पर लिखी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं. मुझे वे सभी अच्छी लगीं. उनकी सबसे बड़ी विशेषता है- उनकी सुगमता, समकालीन सामाजिक विषयों पर सीधा वार. और उससे भी अच्छा लगता है सामाजिक व्यवस्था के प्रति रोष के साथ मानवीय भावनाओं के प्रति स्नेह. सरोकारों के साथ मानवीय प्रेम ही उनकी नारी-सम्बन्धी कविताओं को पठनीय बनाता है.
मैं कोई साहित्य समीक्षक नहीं हूँ. एक पाठक के रूप में जो समझ में आया लिख दिया. मुझे उनकी एक कविता बहुत अच्छी लगी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ. उनकी अन्य कविताएँ कविताकोश में पढ़ी जा सकती हैं.-

बेटी के घर से लौटना 

बहुत ज़रूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी ज़ुबान
बाहर हँसते हुए कहते-कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना . 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

अम्मा के सपने

मेरी अम्मा
बुनती थी सपने
काश और बल्ले से,
कुरुई, सिकहुली
और पिटारी के रूप में,
रंग-बिरंगे सपने...
अपनी बेटियों की शादी के,

कभी चादरों और मेजपोशों पर
काढ़ती थी, गुड़हल के फूल,
और क्रोशिया से
बनाती थी झालरें
हमारे दहेज के लिये,
खुद काट देती थी
लंबी सर्दियाँ
एक शाल के सहारे,

आज...उसके जाने के
अठारह साल बाद,
कुछ नहीं बचा
सिवाय उस शाल के,
मेरे पास उसकी आखिरी निशानी,
उस जर्जर शाल में
महसूस करती हूँ
उसके प्यार की गर्मी...

शनिवार, 30 जनवरी 2010

बेटी

उसके होने से ही
पावन है घर-आँगन,
उसकी चंचल चितवन
मोह लेती हम सबका मन,
वो रूठती
तो रुक जाते हैं
घर के काम सभी,
वो हँसती
तो झर उठते हैं
हरसिंगार के फूल,
महक उठता है
घर का कोना-कोना,
जाने कैसे हैं वे लोग
जो बेटियों को
जन्मने ही नहीं देते
हम तो सह नहीं सकते
अपनी बेटी का
एक पल भी घर में न होना .
ये कविता मेरी दीदी की बेटी शीतल के लिये है. वो मुझे बहुत प्यारी है और अपनी माँ की तरह ही मुझे मानती है. मैं जब भी दीदी के घर जाती हूँ, तो महसूस करती हूँ कि बेटियों का घर में होना कैसा अनुभव है. वो जब तक स्कूल में रहती है, सारा घर उदास रहता है और उसके आते ही मानों घर-आँगन नाच उठता है. आज उसकी बहुत याद आ रही है.)

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

हीरा

अपने बाबूजी की थी मैं
अनगढ़ हीरा
सँवारा,तराशा बनाया मुझे,
बनाकर मुझको
एक अनमोल हीरा
अपनी ही चमक से
चमकाया मुझे,
अपने माँ की थी मैं
जिद्दी बिटिया
डाँटा-डपटा, समझाया मुझे,
दुनियादारी की बातें बताकर
रानी बिटिया
बनाया मुझे,
जब बड़ी हुयी तो
बड़े जतन से
ऊँचे घराने में ब्याहा मुझे,
ससुराल आकर
कहीं खो गयी मैं,
मैं, मैं न रही
कुछ और हो गयी मैं,
मैं थी कहीं का पौधा
कहीं और
गड़ गयी हूँ,
ससुराल के कीमती गहनों में
जड़ गयी हूँ.

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

मेरी बच्ची

तुझे दूँगी वो सारी खुशियाँ
जो मुझे नहीं मिलीं
तेरी ज़िन्दगी को
ऐसे मैं संवारुँगी
तुझे रखूँगी
पलकों की छाँव में
ग़म की हर धूप से
बचा लूँगी
कैसे बचाउँगी
शैतानों की नज़रों से तुझे
अभी से सोचकर
डर लगता है
कि मेरी ही तरह तुझे भी
जाने क्या-क्या सहना होगा
पर अपनी पहचान बनाने के लिये
मेरी बच्ची
तुझे खुद ही लड़ना होगा
ज़िन्दगी की
कड़वी सच्चाइयाँ
रुलायेंगी तुझे
पर वे ही मुझ जैसा
मजबूत बनायेंगी तुझे

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

बड़ी होती हुयी लड़की

अपने ही घर में वह डरती है /और अंधेरे में नहीं जाती /हर पल उसकी आँखों में /रहता है खौफ का साया /जाने किस खतरे को सोचकर /अपने में सिमटी रहती है /रास्ते में चलते -चलते /पीछे मुड़कर देखती है /बार -बार /और किसी को आता देख /थोड़ा किनारे होकर /दुपट्टे को सीने पर /ठीक से फैला लेती है /गौर से देखो /पहचानते हो इसे /ये मेरे ,तुम्हारे /हर किसी के /घर या पड़ोस में रहती है /ये हर घर -परिवार में /बड़ी होती हुयी लड़की है /... ... आओ हम इसमें /आत्मविश्वास जगा दें /अपने हक के लिए /लड़ना सिखा दें /हम चाहे चलें हों /झुक -झुककर सिमटकर /पर अपनी बेटियों को /तनकर चलना सिखा दें .