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शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
मन विद्रोही -2
माँ कहती थी /सूनी राहों पर मत निकलो /क़दम क़दम पर यहाँ भेड़िये/ घात लगा बैठे रहते हैं ./मैं चुप रहती /और सोचती /ये दुनिया है या है जंगल ./अब माँ नहीं जो मुझको रोके /कोई नहीं जो मुझको टोके ,/मैं स्वंतत्र हूँ ,अपनी मालिक /किसी राह भी जा सकती हूँ ,/लेकिन अब भी माँ की बातें /हर दिन याद किया करती हूँ /सूनी राहों से डरती हूँ /और अंधेरे से बचती हूँ ./कंचे खेलना ,पतंग उड़ाना/अब लगती है बातें बीती /जाने किस कोने जा बैठा /मेरा अड़ियल मन विद्रोही .
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