शनिवार, 25 दिसंबर 2010

हँसती हुयी औरत दुखी नहीं होती

सुनो, एक कविता लिखो
या यूँ ही कुछ पंक्तियाँ
जिन्हें कविता कहा जा सके
और इसी बहाने याद रखा जाए

लिखो तुम औरतों के बारे में
उनके दुःख-दर्द और परेशानियाँ
उनकी समस्याओं के बारे में
पर उनकी खुशियों के बारे में कभी मत लिखो

उनकी सहनशीलता, उदारता और
ममता के बारे में लिखो
उनके सपनों, आकांक्षाओं और इच्छाओं के बारे में
कभी मत लिखो.

बता दो दुनिया को औरतों के दमन के बारे में
उन पर हुए अत्याचारों को लिखो
दमन से आज़ादी के संघर्ष की गाथा
कभी मत लिखो

लिखो औरतों के आँसुओं के बारे में
उनके सीने में पलने वाली पीड़ा
पर उनकी खुशी के बारे में
कभी मत लिखो

औरत के आँसू ये बताते हैं
कि वो कितनी असहाय है
त्याग और तपस्या की मूर्ति
उसे ये आँसू पी लेने चाहिए

इन दुःख दर्दों को
मान लेना चाहिए अपनी नियति
हँसने के अपने अधिकारों के बारे में
नहीं सोचना चाहिए

कि हँसती है जो औरत खिलखिलाकर
दुखी नहीं होती
इसलिए औरत नहीं होती 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अभिनेत्री- रघुवीर सहाय की एक कविता

अभिनेत्री जब बंध जाती है
अपने अभिनय की शैली से
तो चीख उसे दयनीय बनाती है
पुरुषों से कुछ ज्यादा
औ' हँसी उसे पुरुषों से ज़्यादा बनावटी
यह इस समाज में है औरत की विडम्बना
हर बार उसे मरना होता है
टूटा हुआ बचाती है
वह अपने भीतर टूटफूट के
बदले नया रचाती है
पर देखो उसके चेहरे पर
कैसी थकान है यह फैली
हँसने रोने को कहती है
उससे पुरुषों की प्रिय शैली
इन दिनों से कुछ ज़्यादा
औरत का चेहरा कह सकता है
पर क्या उसकी ऐसी आज़ादी
पुरुष कभी सह सकता है
वह उसे हँसाता रहता है
वह उसे सताता रहता है
वह अपने सस्ते रंगमंच पर
उसे खेलाता रहता है
औरत का चेहरा है उदास
पर वह करती है अट्टहास
उसके भीतर की एक गरज
अनमनी चीख बन जाती है
वह दे सकती थी कभी कभी
अपने संग्रह से गुप्तदान
पर दया सरेबाज़ार वही
खुद एक भीख बन जाती है.

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

वूमेन ओनली- मेट्रो में औरतों के लिए लेडीज़ कोच

(पिछले दिनों दिल्ली मेट्रो में एक लेडीज़ कोच आरक्षित कर दिया गया. मुझे नहीं लगा था कि इससे कोई ख़ास फर्क पड़ेगा. पर जब मैंने पहली बार उससे यात्रा की तो जो भाव मन में उठे, उन्हें ही यहाँ लिख दिया.)

पहले-पहल 'वूमेन ओनली' देखकर
मन ठिठका
इस धरती पर ऐसी भी जगह हो सकती है
जो आरक्षित हो केवल औरतों के लिए
'नहीं हमें आरक्षण नहीं चाहिए'
बोला गर्वित मन
लेकिन,
याद आ गयी वो धक्का-मुक्की
भीड़-भाड़ की आड़ में
छेड़छाड़ औरतों के शरीर से
और विरोध करने पर उन्हें ही उलाहना
"छूए जाने का इतना डर है तो घर में बैठें
या चलें अपने निजी वाहन से"

अंदर चढ़ी तो देखा
इत्मीनान से भरा एक माहौल
आत्मविश्वास से चमकतीं लड़कियाँ
कुछ खड़ी, कुछ बैठीं
बेहिचक ठहाके लगाती हुईं
आराम से बैठी औरतें
आपस में बतियाती हुईं,
पसरा हुआ सबके बीच एक बहनापा
अनजाने ही सही

एक लेडीज़ कम्पार्टमेंट से
कितना फर्क पड़ सकता है
बाहर निकलने वाली औरतों के जीवन में,
एक स्पेस, जो उनका अपना है
जो स्कूल नहीं, कॉलेज नहीं, घर नहीं, आफिस नहीं,
एक ऐसी जगह, जहाँ औरत सिर्फ औरत है
और जहाँ बैठकर, वह कुछ पल के लिए ही सही
महसूस कर सकती है
अपने आप को.

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

औरत



मेरे पिताजी कैफ़ी आज़मी के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसलिए नहीं कि वो हमारे शहर आजमगढ़ के थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने उस समय लहरों के उलट तैरने की कोशिश की, जब ऐसा सोचना ही पाप माना जाता था. उनकी नज्मों की एक किताब थी हमारे यहाँ, जिसमें मैंने उनकी नज़्म "औरत" पढ़ी थी.  १९४० में लिखी ये रचना औरतों के लिए लिखी गयी एक क्रांतिकारी कविता थी. जब जंग पर जाने वाले आदमी अपनी औरतों को घर संभालने और अपनी रक्षा करने की बात कह रहे थे, तब उन्होंने उससे अपने साथ चलने के लिए कहा था. उस माहौल से अपने को बचाने के बजाय लड़ने को कहा था. 
मेरे पिताजी ने भी बचपन से मुझे लड़ने के लिए तैयार किया. इस तरह कि जैसे जंग पर जाना हो. महत्वाकांक्षी औरतों के लिए ज़िंदगी जंग से भी बढ़कर होती है, ये बात शायद बाऊ जी ने बहुत पहले ही समझ ली थी. 
आज भी ये कविता उतनी ही प्रासंगिक है. जब औरतों को बाहर निकलने पर छेड़छाड़ और बलात्कार तक झेलना पड़ता है और समाज के ठेकेदार कहते हैं कि औरतों को अपनी रक्षा करनी है, तो उन्हें घर में ही रहना चाहिए. मेरे ख्याल से ये कविता हर लड़की को उसके बचपन में ही पढ़ानी चाहिए, ताकि वो सभी विपरीत  परिस्थितियों का सामना बहादुरी से कर सके, भागकर घर में पनाह लेने के बजाय लड़ सके.
इस नज़्म के कुछ अंश, जो मुझे बहुत पसंद हैं, यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ---

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे


इसका वीडियो यू ट्यूब पर कैफ़ी जी की आवाज़ में ही है. लिंक है--
http://www.youtube.com/watch?v=w61ELibfQiY





गुरुवार, 30 सितंबर 2010

रूसी कवि "येव्गेनी येव्तुशेंको" की एक कविता

हे भगवान !
कितने झुक गए हैं स्त्री के कंधे
मेरी उँगलियाँ धँस जाती हैं
शरीर में उसके भूखे, नंगे
और आँखें उस अनजाने लिंग की
चमक उठीं
वह स्त्री है अंततः
यह जानकर धमक उठीं
      फिर उन अधमुंदी आँखों में
      कोहरा सा छाया
      सुर्ख अलाव की तेज अगन का
      भभका आया
      हे राम मेरे ! औरत को चाहिए
      कितना कम
      बस इतना ही
      कि उसे औरत माने हम

(भाषांतर: अनिल जनविजय, "स्त्री: मुक्ति का सपना" पुस्तक से साभार )

शनिवार, 25 सितंबर 2010

गुलाम स्त्रियों की मुक्ति का पहला गीत

(एन्तीपैत्रोस यूनान के सिसरो के काल के प्राचीनतम कवियों में से एक हैं. ये गीत उन्होंने अनाज पीसने की पनचक्की के आविष्कार पर लिखा था क्योंकि इस यंत्र के बन जाने के बाद औरतों को हाथ चक्की के श्रम से छुटकारा मिला था. 
यह कविता श्रम-विभाजन से सम्बंधित प्राचीन काल के लोगों और आधुनिक काल के लोगों के विचारों के परस्पर विरोधी स्वरूप को भी स्पष्ट करती है. कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध कृति "पूँजी" के पहले खंड पर इस कविता का उल्लेख किया है.)

आटा पीसने वाली लड़कियों,
अब उस हाथ को विश्राम करने दो,
जिससे तुम चक्की पीसती हो,
और धीरे से सो जाओ !

मुर्गा बांग देकर सूरज निकलने का ऐलान करे
तो भी मत उठो !

देवी ने अप्सराओं को लड़कियों का काम करने का आदेश दिया है,
और अब वे पहियों पर हलके-हलके उछल रही हैं
जिससे उनके धुरे आरों समेत घुम रहे हैं
और चक्की के भारी पत्थरों को घुमा रहे हैं.
आओ अब हम भी पूर्वजों का-सा जीवन बिताएँ
काम बंद करके आराम करें
और देवी की शक्ति से लाभ उठाएँ.

(कविता "स्त्री: मुक्ति एक सपना" पुस्तक से साभार. कविता का प्रस्तुतीकरण और टिप्पणी: रश्मि चौधरी)

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

बड़की भौजी

उसका ब्याह तब हुआ
जब उसे मालूम भी नहीं था
कि वो एक औरत है,
लाल साड़ी में लिपटी ससुराल आयी
वापस गयी बरसों बाद
जैसे यहीं नाल गड़ी हो उसकी,
... ...
उसे कोई शिकायत नहीं थी
वो रोज़ सुबह उठकर नन्हे हाथों से
जांते में गेहूँ डालती
और अपनी ख्वाहिशों को
पिस-पिसकर ज़मीन पर गिरते देखती,
तवे पर पड़ी रोटी
जब फूलकर गुब्बारा हो जाती
तो उसके चेहरे पर चमक आ जाती थी,
... ...
वो हँसती रहती
मानो सारी परेशानियों को
सूप से पछोरकर उड़ा दिया हो
दुखों को बुहार दिया हो
और चिंताओं को फेंक दिया हो
चावल के कंकड़ों के साथ बीनकर,
... ...
इच्छाएँ, आशाएँ, आकांक्षाएँ क्या होती हैं?
उसे नहीं पता
वो कुछ नहीं सोचती
और ना कुछ कहती अपने बारे में,
अपनी छोटी सी दुनिया में खुश,
निश्चिंत, खिलंदड़ और हँसमुख बड़की भौजी को
चूल्हे के धुँए की आड़ में
अपने आँसुओं को छिपाते पकड़ा
"लकड़िया ओद हौ, धुअँठैले"
बचपने में ब्याह
खेल-खेल में
तीन लड़कियाँ हो गयीं हैं उसकी... ...

(नीचे वाला चित्र मेरी सहेली चैंडी के कैमरे से, ऊपर वाला फ्लिकर के सौजन्य से)

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

गंदी बातें

हमारे समाज मे
कुछ काम ऐसे होते हैं
जिन्हें करते सभी हैं
या करना चाहते हैं
पर उनके बारे में
बातें करना गंदी बात है,
कुछ काम ऐसे हैं
जिन्हें कोई नहीं करना चाहता है,
उनके बारे में...
सिर्फ बातें होती हैं
योजनाएं बनती हैं,
...
गंदी बातों की अजब ही फिलासफ़ी है
प्रैक्टिकल की बात करते हैं लोग
चटखारे ले-लेकर,
पर, थियरी की बातें करना गंदी बात है,
सावधानी की बात करना बुरा है
पर भूल हो जाने पर...
खबर बन जाती है
फतवे जारी होते हैं
नियम बनाए जाते हैं
उन पर गर्मागर्म बहसें होती हैं,
...
गंदी बातों की एक और खास बात है
कि उनमें औरतें ज़रूर होती हैं,
बिना औरतों के
कोई बात गन्दी नहीं हो सकती,
क्योंकि समाज में फैली हर गंदगी
औरतों से जुड़ी होती है,
फिर उसे फैलाया किसी ने भी हो...
...
आज़ाद औरत सबसे बड़ी गंदगी है,
वो हंसकर बोले तो बदचलन
न बोले तो खूसट कहलाती है,
पर वो...
सामान्य व्यक्ति कभी नहीं हो सकती है,
अकेले रहने वाली हर औरत
एक गंदी औरत है
और उसके बारे में
सबसे ज्यादा गंदी बातें होती हैं...

रविवार, 8 अगस्त 2010

अनकही सी एक बात

अनकही सी एक बात,
सालती रही दिल को
कितने ही दिन
कितनी ही रातें, 
हिम्मत जुटाकर फिर
कह ही दिया
"लौट आओ"
और वो लौट आया चुपचाप 
बिना कुछ कहे,
मानो उसको भी था इंतज़ार 
इसी छोटी सी एक बात का, 
जो रह जाती है अक्सर
अनकही   
और तोड़ जाती है 
कितने ही रिश्तों को 
अहंकार के चलते ... ... ...

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

क़र्ज़

एक औरत
चुका सकती है
माँ के दूध का क़र्ज़,
कुछ हद तक... 
ख़ुद माँ बनकर
एक पुरूष, 
यह नहीं कर सकता,
सृष्टि के आदि से अंत तक
संसार के सभी पुरुषों पर
रहेगा हमेशा 
यह क़र्ज़ .

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मन विद्रोही

डेढ़ साल पहले जब मैंने ये ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तो दो कवितायें लिखी थीं, एक लड़की के बारे में जिसका मन बंधनों को नहीं मानना चाहता... उड़ जाना चाहता है कहीं दूर तक... पर फिर माँ की कही बातें याद आ जाती हैं... और मन मसोसकर रह जाती है... एक छोटी सी लड़की के मन की बात है... सीधी-सादी सी...
(१.)
माँ कहती थी -ज़ोर से मत हँस
तू लड़की है... 
धीरे से चल,
अच्छे घर की भली लड़कियाँ
उछल -कूद नहीं करती हैं,
मैं चुप रहती...
माँ की बात मान सब सहती,
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही
हँसता जाता ,चलता जाता,
कंचे खेलता ,पतंग उड़ाता
डोर संग ख़ुद भी उड़ जाता, 
तुम लड़के हो ,
तुम क्या जानो?
कैसे जीती है वो लड़की,
जिसका अपना तन है बंदी 
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही. 
(२.)
माँ कहती थी
सूनी राहों पर मत निकलो
क़दम क़दम पर यहाँ भेड़िये
घात लगा बैठे रहते हैं, 
मैं चुप रहती 
और सोचती
ये दुनिया है या है जंगल... 
अब माँ नहीं जो मुझको रोके
कोई नहीं जो मुझको टोके, 
मैं स्वंतत्र हूँ ,अपनी मालिक
किसी राह भी जा सकती हूँ ,
लेकिन अब भी माँ की बातें
हर दिन याद किया करती हूँ, 
सूनी राहों से डरती हूँ
और अंधेरे से बचती हूँ, 
कंचे खेलना ,पतंग उड़ाना
अब लगती है बातें बीती...
जाने किस कोने जा बैठा ?
मेरा अड़ियल मन विद्रोही. 

शनिवार, 17 जुलाई 2010

धूल

धूल साथी है
मेहनतकश मजदूरों की, गरीबों की,
बड़े घरों की शानदार बैठकों में
धूल नहीं होती ,
उसे रगड़-रगड़कर
साफ़ कर दिया जाता है,

धूल में होते हैं
अनेक रोगाणु -कीटाणु
जैसे शहर की झोपड़पट्टियों में पलते
कीड़ों जैसे गंदे-बिलबिलाते लोग,

झोपड़पट्टियाँ...
शानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।

गुरुवार, 20 मई 2010

मेरा होना या न होना

मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को,
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.

जी रही थी मैं
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ,
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर,
बस चल रही थी ...

राह में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने 'होने' का एहसास हुआ,

अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे 'होने' की राह में रुकावट है...

हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो 'है'
पर, 'नहीं हो पा रही है खुद सी'
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों की,
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया .

शनिवार, 1 मई 2010

सोचकर तो देखें

कभी सोचते हैं हम
फाइव-स्टार होटलों में
छप्पन-भोग खाने से पहले
कि कितने ही लोग
एक जून रोटी के बगैर
तड़प-तड़प के मरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
आलीशान मालों में
कीमती कपड़े खरीदने से पहले
कि कितने बच्चे और बूढे
फटे -चीथड़े लपेटे
गर्मी में झुलसते
सर्दी में ठिठुरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों को
सैकड़ों लीटर पानी से
नहलाने से पहले
कि इसी देश के किसी कोने में
लोग बूँद-बूँद पानी को तरसते हैं ।

सोचते हैं हम कि
अकेले हमारे सोचने से
क्या फर्क पड़ेगा
कभी सोचकर तो देखें
एक बार तो मन ठिठकेगा...

(यह कविता पिछले वर्ष मजदूर दिवस पर लिखी थी...आज भी कुछ नहीं बदला है...और आगे भी शायद नहीं बदलेगा...पर, क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ??)

बुधवार, 31 मार्च 2010

वो नहीं ’गुड़ियाघर’ की नोरा जैसी.

जब उसने
एक-एक करके
झुठला दिये
उसके सभी आरोप,
काट दिये उसके सारे तर्क,
तो झुंझलाकर वह बोला,
"औरतें कुतर्की होती हैं
अपने ही तर्क गढ़ लेती हैं
बुद्धि तो होती नहीं
करती हैं अपने मन की"

वो सोचने लगी,
काश...वो बचपन से होती
ऐसी ही कुतर्की...,
गढ़ती अपने तर्क
बनाती अपनी परिभाषाएँ
करती अपने मन की,
पर अब
बहुत देर हो चुकी
क्या करे ???
वो नहीं...
'गुड़ियाघर' की नोरा जैसी.

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

भूख से मरने वालों की खबर (2)

(पता नहीं ये आँकड़े कितने सच्चे हैं ? कितने झूठे ? पर बात इन आँकड़ों की सच्चाई की नहीं, इनसे पड़ने वाले असर की है. पता नहीं ये खबरें लोगों उद्वेलित करती हैं या नहीं, पर मुझे करती हैं.  24th फ़रवरी 2010,के Hindustaan Times के Delhi संस्करण में उड़ीसा के कुछ जिलों में भूख से मरने वालों की खबर आयी और मुझे परेशान कर गयी. मेरे कुछ दोस्त एन.जी.ओ. में काम करते हैं. उन्होंने पिछले साल बुन्देलखण्ड में अपनी आँखों से भूख से मरते हुये लोगों को देखा. आँकड़े भले ही कुछ कम या ज्यादा संख्या बताएँ, पर हमारे देश में भूख से लोग मरते हैं और हमारे प्रतिनिधि और नौकरशाही इस बात को छिपाने की कोशिश करती है...आज इस खबर का जो असर मुझ पर हुआ, वह कुछ इस तरह निकला...)

भूख से मरने वालों की खबर
अखबार के
पहले पन्ने पर छपती है,
पढ़कर..
कोने में फेंक दी जाती है,
फिर किसी दिन
बिक जाती है
अखबार के साथ रद्दी में,
...
भूख से मरने वालों की खबर
नहीं बनती आवाज़
न ही आंदोलन
न मुद्दा
बस...
खबर बनकर रह जाती है,
...
झूठी आवाज़ों से बहरे हुये
कानों को सुनाने के लिये,
चीख चाहिये...
तेज़ आवाज़ चाहिये...
नारे चाहिये...,
और भूख से बिलबिलाता आदमी
तेज़ बोले भी तो कैसे?
देह में जान नहीं
मुँह खोले भी तो कैसे??

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

कौन सी भूख ज़्यादा बड़ी है???

प्रिय तुम्हारी बाहों में
पाती हूँ मैं असीम सुख,
भूल जाना चाहती हूँ
सारी दुनियावी बातों को,
परेशानियों को,
फिर क्यों ??
याद आती है वो लड़की
चिन्दी-चिन्दी कपड़ों में लिपटी
हाथ में अल्यूमिनियम का कटोरा लिये
आ खड़ी हुई मेरे सामने
प्लेटफ़ार्म पर,
मैंने हाथ में पकड़े टिफ़िन का खाना
देना ही चाहा था
कि एक कर्मचारी
उसका हाथ पकड़कर
घसीट ले गया उसे बाहर
और वो रिरियाती-घिघियाती रही
"बाबू, रोटी तो लइ लेवै दो,"
मैं कुछ न कर पायी.
... ...
क्यों याद आता है वो लड़का
जो मिला था हॉस्टल के गेट पर
चेहरे से लगता जनम-जनम का भूखा
अपनी आवाज़ में दुनिया का
दर्द समेटे
सूखे पपड़ियाए होठों से
"दीदी, भूख लगी है"
बड़ी मुश्किल से इतना बोला
मेरे पास नहीं थे टूटे पैसे,
पचास का नोट कैसे दे देती,
मैं कुछ न कर पायी
... ...
ये बेचैनी, ये घुटन
कुछ न कर पाने की
सालती है मुझे अन्दर तक
और मैं घबराकर
छिपा लेती हूँ तुम्हारे सीने में
अपना चेहरा,
आराम की तलाश में,
पर दिखती हैं मुझे
दूर तक फैली मलिन बस्तियाँ,
नाक बहाते, गन्दे, नंगे-अधनंगे बच्चे,
उनको भूख से बिलखते,
आधी रोटी के लिये झगड़ते,
बीमारी से मरते देखने को विवश
माँ-बाप.
... ...
तुम सहलाते हो मेरे बालों को,
और चूम के गालों को हौले से
कहते हो कानों में कुछ प्रेम भरी
मीठी सी बातें,
पर सुनाई देती हैं मुझे
कुछ और ही आवाज़ें
"दीदी भूख लगी है"
"बाबू रोटी तो लइ लेवै दो"
"दीदी भूख लगी है"
गूँजती हैं ये आवाज़ें मेरे कानों में
बार-बार, लगातार,
वो जादुई छुअन तुम्हारे हाथों की
महसूस करती हूँ, अपने शरीर पर
और सोचती हूँ
कौन सी भूख ज़्यादा बड़ी है???

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

तुम्हारी मर्ज़ी

किसने कहा था
खोल दो खिड़कियाँ?
अब बौछारें पड़ेंगी
तो उनकी छींटें
भिगो देंगी घर के कोने,
हवाएँ आयेंगीं
और फड़फड़ायेंगे
डायरी के पन्ने,
कुछ तिनके, कुछ धूल,
कुछ सूखे पत्ते,
डाल से टूटकर आ जायेंगे
हवाओं के साथ अनचाहे ही,
ताज़ी हवा और रोशनी के लिये
ये सब तो
सहना ही पड़ेगा,
या फिर...
बंद कर लो खिड़कियों को,
और बैठे रहो भीतर
साफ़-सुथरे,
अकेले,
गुमसुम,
तुम्हारी मर्ज़ी.

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

अनछुई कली

जनवरी में मेरे इस ब्लॉग को एक वर्ष पूरे हो गये हैं. मेरे लिये सबसे अच्छी बात यह रही कि इस बीच बहुत से सुधीजनों से परिचय हुआ, अनेक लोगों से प्यार और स्नेह मिला. मुझे लगा जैसे ब्लॉगजगत मेरा एक परिवार बन गया हो, हालांकि अभी मुझे कम लोग ही जानते हैं, पर फिर भी, जो जानते हैं, अच्छी तरह से जानते हैं.
मैंने यह ब्लॉग आरंभ किया था अपनी उन भावनाओं को व्यक्त करने के लिये, जो मैंने एक लड़की होने के नाते अनुभव की हैं. इसलिये मेरी इन कविताओं में साहित्य से कहीं अधिक सामाजिक सरोकार की प्रधानता है, शिल्प से अधिक भाव की प्रमुखता है.
आज मैं एक साल पहले पोस्ट की गयी अपनी पहली कविता को दोबारा पोस्ट कर रही हूँ.

तुमने... मेरी ठोड़ी को
हौले से उठाकर कहा,
"अनछुई कली हो तुम! "
मैं चौंकी,
ये झूठ तो नहीं...
नहीं, तन और मन से
पवित्र हूँ मैं,
मैं कली हूँ अनछुई
और तुम भँवरे,
मैं स्थिर तुम चंचल,
प्रेम की राह में दोनों बराबर,
तो मैं ही अनछुई क्यों रहूँ ?
भला बताओ...
तुम्हें अनछुआ भँवरा क्यों न कहूँ ?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

अम्मा के सपने

मेरी अम्मा
बुनती थी सपने
काश और बल्ले से,
कुरुई, सिकहुली
और पिटारी के रूप में,
रंग-बिरंगे सपने...
अपनी बेटियों की शादी के,

कभी चादरों और मेजपोशों पर
काढ़ती थी, गुड़हल के फूल,
और क्रोशिया से
बनाती थी झालरें
हमारे दहेज के लिये,
खुद काट देती थी
लंबी सर्दियाँ
एक शाल के सहारे,

आज...उसके जाने के
अठारह साल बाद,
कुछ नहीं बचा
सिवाय उस शाल के,
मेरे पास उसकी आखिरी निशानी,
उस जर्जर शाल में
महसूस करती हूँ
उसके प्यार की गर्मी...

शनिवार, 30 जनवरी 2010

बेटी

उसके होने से ही
पावन है घर-आँगन,
उसकी चंचल चितवन
मोह लेती हम सबका मन,
वो रूठती
तो रुक जाते हैं
घर के काम सभी,
वो हँसती
तो झर उठते हैं
हरसिंगार के फूल,
महक उठता है
घर का कोना-कोना,
जाने कैसे हैं वे लोग
जो बेटियों को
जन्मने ही नहीं देते
हम तो सह नहीं सकते
अपनी बेटी का
एक पल भी घर में न होना .
ये कविता मेरी दीदी की बेटी शीतल के लिये है. वो मुझे बहुत प्यारी है और अपनी माँ की तरह ही मुझे मानती है. मैं जब भी दीदी के घर जाती हूँ, तो महसूस करती हूँ कि बेटियों का घर में होना कैसा अनुभव है. वो जब तक स्कूल में रहती है, सारा घर उदास रहता है और उसके आते ही मानों घर-आँगन नाच उठता है. आज उसकी बहुत याद आ रही है.)

बुधवार, 27 जनवरी 2010

आज़ादी का मतलब

कौन है क़ैद?
कौन आज़ाद?
कैसे तय करें?
कुछ बन्धन
जिन्हें हम
समझते हैं क़ैद
उनसे आज़ाद होकर
पाते हैं खुद को
ठगा सा,
फिर तड़पते हैं
वापस
उन्हीं बन्धनों में
बँधने के लिये,
रह जाते हैं हम
इस मकड़जाल में
उलझकर,
हमें
आज़ादी का मतलब
समझना ही होगा.

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

नमन

जिसने मुझे
उँगली पकड़कर
चलना नहीं सिखाया
कहा कि खुद चलो
गिरो तो खुद उठो,
जिसने राह नहीं दिखाई मुझे
कहा कि चलती रहो
राह बनती जायेगी,
जिसने नहीं डाँटा कभी
मेरी ग़लती पर
लेकिन किया मजबूर
सोचने के लिये
कि मैंने ग़लत किया,
जिसने कभी नहीं फेरा
मेरे सिर पर हाथ
दुलार से
पर उसकी छाँव को मैंने
प्रतिपल महसूस किया,
जिसने खर्च कर दी
अपनी पूरी उम्र
और जमापूँजी सारी
मुझे पढ़ाने में
दहेज के लिये
कुछ भी नहीं बचाया,
आज नमन करता है मन
उस पिता को
जिसने मुझे
स्त्री या पुरुष नहीं
इन्सान बनकर
जीना सिखाया.

बुधवार, 20 जनवरी 2010

विश्वास

जब-जब तुमने कहा
"तुम मेरी हो"
मुझे लगा
मैं चीज़ हूँ कोई

जब-जब तुमने कहा
"मैं तुम्हारा हूँ"
मैंने महसूस किया
एहसान कर रहे हो तुम

और जब तुमने कहा
"हम बने हैं एक-दूजे के लिये"
मुझे ये प्यार नहीं
व्यापार लगा

इतने बरस बाद भी
मुझे तुम्हारे प्यार पर
विश्वास क्यों नहीं?

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बचकाना सा एक सपना

मेरा एक सपना है
कि मैं दिल्ली की
रिंग रोड को
देख सकूँ रात को
कैसी लगती हैं
बंद दुकानें और रेस्टोरेंट
खाली सड़कें
बिना ट्रैफिक की,

बैठ जाऊँ मैं
सड़क के डिवाइडर पर
और लिखूँ
एक कविता,

मेरा यह सपना
बचकाना लग सकता है,
इसे पूरा होने में
लग सकते हैं वर्षों,
पर पूरा होगा ज़रूर,

देखना एक दिन आएगा
जब एक अकेली लड़की
शहर की सड़कों पर
रात को घूम सकेगी
बेखौफ़ होकर

बुधवार, 6 जनवरी 2010

पूर्ण समर्पण

प्रिय, तुमने कहा था मुझसे
कि तुम मुझको
पाना चाहते हो
पूरी तरह से
तब मैं
तुम्हारे "पूरी तरह से" का
मतलब नहीं समझ पायी थी
अब जान गयी हूँ
मैं तैयार हूँ
कर दूँगी मैं
पूर्ण समर्पण
दे दूँगी तुमको ये तन
इसमें क्या रखा है
कर सकती हूँ
तुम पर अर्पण
सौ-सौ जीवन
क्योंकि मैंने
तुमको चाहा था
और चाहती हूँ
पूरी तरह से
पर नहीं था मालूम मुझे
कि तुमने मुझको
आधा ही चाहा था
और पूरी तरह से
तब चाहोगे
जब तुम मुझको
मेरी देह सहित
"पूरी तरह" से पा जाओगे.

शनिवार, 2 जनवरी 2010

चुप्पी

हम तब भी नहीं बोले थे
जब एक टीचर ने
बुलाया था उसे स्टाफ़रूम में
अकेले
और कुत्सित मानसिकता से
सहलायी थी उसकी पीठ
डरी-सहमी वह
रोती रही
सिसकती रही
...
हम तब भी नहीं बोले
जब बीच युनिवर्सिटी में
खींचा गया था
उसका दुपट्टा
और वह
हाथों से सीने को ढँके
लौटी हॉस्टल
फिर वापस कभी
युनिवर्सिटी नहीं गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब तरक्की के लिये
माँगी गयी उसकी देह
वह नहीं बिकी
एक नौकरी छोड़ी
दूसरी छोड़ी
तीसरी छोड़ी
और फिर बिक गयी
...
हम तब भी नहीं बोले
जब रुचिका ने की आत्महत्या
जेसिका, प्रियदर्शिनी मट्टू
मार दी गयी
उनके हत्यारे
घूमते रहे
खुलेआम
...
हम आज भी नहीं बोले
जब इसी ब्लॉगजगत में
सरेआम एक औरत का
होता रहा
शाब्दिक बलात्कार
और हम चुप रहे
हम चुप रहे
चुप... ...