बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

औरत



मेरे पिताजी कैफ़ी आज़मी के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसलिए नहीं कि वो हमारे शहर आजमगढ़ के थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने उस समय लहरों के उलट तैरने की कोशिश की, जब ऐसा सोचना ही पाप माना जाता था. उनकी नज्मों की एक किताब थी हमारे यहाँ, जिसमें मैंने उनकी नज़्म "औरत" पढ़ी थी.  १९४० में लिखी ये रचना औरतों के लिए लिखी गयी एक क्रांतिकारी कविता थी. जब जंग पर जाने वाले आदमी अपनी औरतों को घर संभालने और अपनी रक्षा करने की बात कह रहे थे, तब उन्होंने उससे अपने साथ चलने के लिए कहा था. उस माहौल से अपने को बचाने के बजाय लड़ने को कहा था. 
मेरे पिताजी ने भी बचपन से मुझे लड़ने के लिए तैयार किया. इस तरह कि जैसे जंग पर जाना हो. महत्वाकांक्षी औरतों के लिए ज़िंदगी जंग से भी बढ़कर होती है, ये बात शायद बाऊ जी ने बहुत पहले ही समझ ली थी. 
आज भी ये कविता उतनी ही प्रासंगिक है. जब औरतों को बाहर निकलने पर छेड़छाड़ और बलात्कार तक झेलना पड़ता है और समाज के ठेकेदार कहते हैं कि औरतों को अपनी रक्षा करनी है, तो उन्हें घर में ही रहना चाहिए. मेरे ख्याल से ये कविता हर लड़की को उसके बचपन में ही पढ़ानी चाहिए, ताकि वो सभी विपरीत  परिस्थितियों का सामना बहादुरी से कर सके, भागकर घर में पनाह लेने के बजाय लड़ सके.
इस नज़्म के कुछ अंश, जो मुझे बहुत पसंद हैं, यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ---

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे


इसका वीडियो यू ट्यूब पर कैफ़ी जी की आवाज़ में ही है. लिंक है--
http://www.youtube.com/watch?v=w61ELibfQiY





19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत शुक्रिया आराधना कैफी जी की इस नज़्म को यहाँ बांटने का .एक एक पंक्ति दिल की तह तक जाती है.

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  2. क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना, आपके माध्‍यम से यह हम तक पहुंची, बहुत-बहुत आभार ।

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  3. कैफी एक आंदोलन थे. आन्दोलनों नें बहुत कुछ सुधारा है. अभी बहुत कुछ सुधारना हैं... अराधना, तुम्हें बहुत कुछ सुधारना है.

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  4. अभी २-४ दिन पहले ही मैं ने u-tube पर ये नज़्म सुनी ,सच मज़ा आ गया बेहद ख़ूबसूरत नज़्म है ,मैं आप से पूरी तरह सहमत हूं कि ये नज़्म लड़्कियों को बचपन से पढ़ाना चाहिये ताकि उन का आत्म्विश्वास सुदृढ़ हो सके
    शुक्रिया

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  5. कभी पढ़ी नहीं थी यह नज़्म..आनन्द आ गया. बहुत आभार.
    इस्मत जी बता रही हैं तो अब यू ट्यूब पर भी जाकर सुनता हूँ.

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  6. जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ये नज़्म
    हमारे साहित्य के लिए एक नायब धरोहर की तरह है
    किसी भी कालखंड और परिस्थितियों के लिए
    एक आह्वान ,, एक आदोलन ...

    आपके सार्थक प्रयास को नमन

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  7. उठ, मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे!क्यों?यह कुछ आउटडेटेड नहीं लगता ?

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  8. जी, आउटडेटेड है उनके लिए, जो ये समझते हैं कि ज़माना बदल गया है, जबकि अपनी बेटियों को अब भी हम शाम ढलते ही घर वापस लौट आने को कहते हैं.

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  9. kaifi aazmi apne aap mein ek shakhsiyat hain..unka likha kam hi padhne ko mila hai ...umda nazm hai..sahi keha mukti zamana kitna bhi naya ho...fikra jayaj hai aaj bhi

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  10. वे उन दिनों भी कितना आगे थे और समाज आज भी कितना पीछे

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  11. कैफी आज़मी का मैं इतना बड़ा फैन हूँ की क्या कहूँ....उनके बारे में बहुत कुछ पढ़ा है...बहुत कुछ जाना भी है...और ये नज़्म तो बस बेहतरीन है...बहुत शुक्रिया आराधना जी इसे शेयर करने के लिए...यूट्यूब का ये विडियो सेव कर लिया मैंने :)

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  12. ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये .

    बहुत खूब !

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  13. हिम्मत और हौसले का पैग़ाम देती नज़्म...बहुत खूबसूरत.

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  14. हर औरत को जो लीक से जरा सा हट कर चले....हज़ार ज़हमतें उठानी पड़ती हैं..
    बहुत ही बढ़िया नज़्म शेयर की...एक जोश भर देने वाला. ..और कोई तो है जो समझता है उनकी मुसीबतें .

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  15. कैफ़ी आज़मी के हम भी दीवाने है .हकीक़त के गानों से अर्थ के गानों तक.......उनका एक शेर तो यूं भी जीवन का फलसफा बन गया है......
    "यूं तो जो कुछ था मेरे पास मै वो सब बेच आया
    कही इनाम मिला ओर कही कीमत भी नहीं "

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