सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ओस

गीली रात में उतरती है
फूलों पर ओस
हौले से छूकर उसे मुस्कुराती है
पंखुरी बिठा लेती है
अपनी पीठ पर उसे
और धीरे-धीरे-झूला झुलाती है
प्रेम का पावन रूप
पल्लवित होता है
ऐसी ही निःशब्द विभावरी में
जब पेड़ों के झुरमुट से
चाँदनी झर-झर के आती है

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

स्त्रियाँ सो रहीं हैं

स्त्रियाँ सो रहीं हैं
सुलाया गया है उन्हें सदियों से
थपकी देकर
असुरक्षा का झूठा हौव्वा खड़ा करके
डराया गया है
कि यदि वे जागेंगी
तो दिखेंगे भयावह दृश्य
और क्रूर यथार्थ से होगा सामना
इस डर से स्त्रियाँ
सो रहीं हैं
सोने से ही आते हैं
सुंदर सपने
एक छोटे से घर ,सुख-सुविधा
रंग-बिरंगे संसार के सपने
स्त्रियाँ जब कसमसाती हैं
जागने के लिए
तो उन्हें मीठी गोली देकर
फिर से सुला दिया जाता है
पर सोते-सोते ही अब
बदल गए हैं उनके सपने
देखने लगी हैं वे
जहाज उड़ाने और
अन्तरिक्ष में जाने के सपने
सोते-सोते ही वे बन गयीं हैं
डॉक्टर ,इंजिनियर
फिर भी अभी
स्त्रियाँ सो रहीं हैं
जब जागेंगी वे तो होगी
अर्ध-नारीश्वर के बाएं अंगों में फड़कन
क्योंकि वे भी तो
दायें हाथ से ही करते थे
सारा शुभ कार्य
और अशुभ कार्य बाएँ हाथ से
स्त्रियाँ जब जागेंगी तो होगा हाहाकार
टूटेंगी बेडियाँ ,खुलेंगे कारागार
होगी इतनी हलचल की
हिल उठेगा आसमान
क्योंकि जब जागेंगी स्त्रियाँ
तो जागेगा
सोया हुआ आधा संसार

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

अपनी राह पर

मेरी किस्मत में
नहीं थी चाँदी की चम्मच
और मखमली कालीन
थे पथरीले काँटों से भरे रास्ते
जिन पर झाड़-झंखाड़ को हटाकर
ख़ुद ही चलना था मुझे

मेरी किस्मत में नहीं थी
माँ की ममता की छाँव
और पिता के प्यार का साया
दुःख और मुश्किलों की धूप में
तपते रहना और जलना था मुझे

पर ...मुझे
किस्मत से कोई शिकायत नहीं
आख़िर ...उसने ही तो मुझे
ख़ुद अपनी राह बनाना सिखाया
धीरज रखना और दुःख सहना सिखाया

ठोकरें खा-खाकर
सख्त़ और सख्त़ बनती जा रही हूँ मैं
ख़ुद अपनी राह पर
बिना किसी सहारे चलती जा रही हूँ मैं ।

रविवार, 5 अप्रैल 2009

मेरे सपनों में घर

मेरे सपनों में
आता है जो घर वो सपनों का घर नहीं
मेरा अपना घर है ,
वो घर, जिसे पिताजी ने बड़े अरमानों से बनाया था
हम भाई -बहनों ने
उसका कोना-कोना सजाया था,

वो घर, जिसकी खिड़की से दिखती थी बँसवारी
और दूर तक फैले खेत
जिसकी छत पर चाँदनी रातों में हम करते थे घंटों बातें,
छूट गया वो घर मुझसे
पिताजी के जाने के बाद,
रह गई उस घर की, उन खेतों -खलिहानों की याद
अब वो घर आता है अक्सर मेरे सपनों में,
और आँसुओं से भीग जाता है मेरा तकिया

... ... तीन साल हुए घर गए
सोचती हूँ कब और कैसे वहाँ जाऊँगी
पिताजी को बरामदे में चारपाई पर बैठा न पाकर
ख़ुद को कैसे सँभाल पाऊँगी?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

तुम्हारे जाने के बाद

फूल सभी मुरझा गए
सूरज बुझ गया
चिडियाँ गूँगी हो गयीं
सन्नाटा फैल गया सब ओर 
दिशाएँ सूनी हो गयीं
रंगों से भरा ये संसार
कब हो गया फीका -फीका सा
मुझे कुछ भी नहीं याद
कि देखी हैं कब बहारें मैंने
तुम्हारे जाने के बाद
 ... ... ...

तुम्हारे होने से
फैल जाती थी
हवाओं में महक और
गुनगुना उठती थीं पेड़ों की पत्तियाँ
सारा संसार लगता था
अपना -अपना सा
जगता था अपने अस्तित्व की
पूर्णता का अहसास
आज अधूरी हो गई हूँ मैं
तुम्हारे जाने के बाद ।

प्रश्न

औरत के प्रश्न /समाज को /विचलित क्यों कर देते हैं /क्यों लगता है कि इससे /चरमरा जाएगा /समाज का ढांचा /और परिवार नाम की संस्था /ध्वस्त हो जायेगी /समाज और परिवार को /बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी /अगर औरत की है /तो क्यों खामोश है वो /प्रश्न क्यों नहीं करती /जो जैसा है ,ठीक है /यह मानकर /चुप क्यों रह जाती है ।