गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

मेरे दोस्त

मैं खुद को आज़ाद तब समझूँगी
जब सबके सामने यूँ ही
लगा सकूँगी तुम्हें गले से
इस बात से बेपरवाह कि तुम एक लड़के हो,
फ़िक्र नहीं होगी
कि क्या कहेगी दुनिया?
या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,
चूम सकूँगी तुम्हारा माथा
बिना इस बात से डरे
कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ
और उन्हें लेते समय
लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान

जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर
नहीं पड़ेगा फर्क
तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,
तुम वैसे ही मिलोगे मुझसे
जैसे मिलते हो अभी,
हम रात भर गप्पें लड़ाएँगे
या करेंगे बहस
इतिहास-समाज-राजनीति और संबंधों पर,
और इसे
तुम्हारे या मेरे जीवनसाथी के प्रति
हमारी बेवफाई नहीं माना जाएगा

वादा करो मेरे दोस्त!
साथ दोगे मेरा,
भले ही ऐसा समय आते-आते
हम बूढ़े हो जाएँ,
या खत्म हो जाएँ कुछ उम्मीदें लिए
उस दुनिया में
जहाँ रिवाज़ है चीज़ों को साँचों में ढाल देने का,
दोस्ती और प्यार को
परिभाषाओं से आज़ादी मिले.

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

रिश्ते टूटते हैं प्यार नहीं टूटा करता

सोचती हूँ हम दोनों के बीच
जो था वो था भी कि नहीं
ये कैसा खालीपन है
इस पार से उस पार तक
सूखी पहाड़ी नदी पर पसरे रेत सा
सफ़ेद, सफ़ेद और सफ़ेद

यूँ तो खालीपन पहले भी था
पर कुछ चीज़ों से भरा-भरा
कुछ चुहल भरी बातें
कुछ मिस्री घुली यादें
उनींदी आँखों के कुछ रंग भरे सपने
दो दिलों में पलने वाले प्यार की खुराक
हम मानते थे
खालीपन ज़रूरी है प्यार के विस्तार के लिए

हम सोचते थे भर देंगे इस खालीपन को
लबालब अपने प्रेम से
और फिर दो किनारे मिल जायेंगे
इस पुल के सहारे-सहारे
पर सोचा हुआ होता है क्या कभी?
अब बस खालीपन है और कुछ भी नहीं
उस पार किसी के होने की आस तक नहीं

कभी लगता है सब भ्रम था
या कि एक रात का सुन्दर लंबा सपना
पर नहीं, भ्रम नहीं, था ये शाश्वत सत्य
एक किनारे वाली इस रेत की नदी में
डूब-डूब जाता है मन, ढूँढने को पुरानी बातें
पुल टूट गया तो क्या
प्यार तो बाकी है अब भी कहीं
मेरे दिल के किसी कोने में मौजूद,

सुकून है अब बस
किसी से मिलने की बेचैनी नहीं
बिछड़ने का डर भी नहीं
कभी-कभी किसी रिश्ते का टूटना
कितनी राहत दे जाता है
क्योंकि प्यार तब भी रहता है
रिश्ते टूटते हैं
प्यार नहीं टूटा करता.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

मरीचिका


खुद के बनाए सपनों के महल
कुछ खुशफहमियाँ 
कुछ जानबूझकर अनदेखा करना
आँखें बंदकर चलना
अनचाही मंजिल पर पहुंचकर पछताना,
मरीचिका है ये, मृग मरीचिका
प्रेम, भावनाएँ, भली बातें
दुनिया इतनी भली नहीं, जितनी लगती है
तुम उतनी सुखी नहीं, जितनी दिखती हो
क्यों करती हो ये नाटक?
भला इसी में है कि इस भ्रमजाल से निकल आओ,
दुनिया को अपनी नज़र से देखने वाली औरत
इस ढोंग से बाज आओ
वरना एक दिन पछताओगी
सुखी जीवन का नाटक करते-करते ऊब जाओगी
और निकलने की राह भी ना पाओगी.

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

बेटी के घर से लौटना / चंद्रकांत देवताले

जो लोग आधुनिक कविता को जानते हैं, उन्हें चंद्रकांत देवताले के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है और जो लोग जानना चाहते हैं, वे यहाँ से कुछ जानकारियाँ पा सकते हैं. मैं आधुनिक हिन्दी साहित्य के विषय में अधिक नहीं जानती और इत्मीनान से साहित्य पढ़ने का कभी मौका नहीं मिला, लेकिन नारी-विमर्श में रूचि होने के कारण समय-समय पर औरतों के बारे में और औरतों के द्वारा लिखी हुयी कविताएँ पढ़ने को मिलती रहती हैं.
चंद्रकांत जी की औरतों पर लिखी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं. मुझे वे सभी अच्छी लगीं. उनकी सबसे बड़ी विशेषता है- उनकी सुगमता, समकालीन सामाजिक विषयों पर सीधा वार. और उससे भी अच्छा लगता है सामाजिक व्यवस्था के प्रति रोष के साथ मानवीय भावनाओं के प्रति स्नेह. सरोकारों के साथ मानवीय प्रेम ही उनकी नारी-सम्बन्धी कविताओं को पठनीय बनाता है.
मैं कोई साहित्य समीक्षक नहीं हूँ. एक पाठक के रूप में जो समझ में आया लिख दिया. मुझे उनकी एक कविता बहुत अच्छी लगी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ. उनकी अन्य कविताएँ कविताकोश में पढ़ी जा सकती हैं.-

बेटी के घर से लौटना 

बहुत ज़रूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी ज़ुबान
बाहर हँसते हुए कहते-कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का

सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना . 

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

परिभाषाएँ

स्त्रीत्व
स्त्री का होना है
उसका अस्तित्व
एक जैववैज्ञानिक तथ्य,
दर्शाता है
स्त्रियों के बीच समानता
पुरुषों से उनकी भिन्नता

स्त्री सुलभता
एक छल है
समाजवैज्ञानिक छद्म,
पितृसत्ता द्वारा गढ़ा गया
थोप दिया गया औरतों पर
स्वाभाविकता और उन्मुक्तता के विरुद्ध

स्त्रियोचित
एक धमकी है
छीन लेती है पुरुषों से
उनके रोने और भावुक होने की आज़ादी,
बना देती है पत्थर
एक घुटन के साथ

पौरुष
एक दंभ है
पितृसत्ता का दूसरा रूप
बनाता है परिभाषाएँ
करता है बाध्य
बंधने के लिए उनकी सीमा में