प्रिय तुम्हारी बाहों में
पाती हूँ मैं असीम सुख,
भूल जाना चाहती हूँ
सारी दुनियावी बातों को,
परेशानियों को,
फिर क्यों ??
याद आती है वो लड़की
चिन्दी-चिन्दी कपड़ों में लिपटी
हाथ में अल्यूमिनियम का कटोरा लिये
आ खड़ी हुई मेरे सामने
प्लेटफ़ार्म पर,
मैंने हाथ में पकड़े टिफ़िन का खाना
देना ही चाहा था
कि एक कर्मचारी
उसका हाथ पकड़कर
घसीट ले गया उसे बाहर
और वो रिरियाती-घिघियाती रही
"बाबू, रोटी तो लइ लेवै दो,"
मैं कुछ न कर पायी.
... ...
क्यों याद आता है वो लड़का
जो मिला था हॉस्टल के गेट पर
चेहरे से लगता जनम-जनम का भूखा
अपनी आवाज़ में दुनिया का
दर्द समेटे
सूखे पपड़ियाए होठों से
"दीदी, भूख लगी है"
बड़ी मुश्किल से इतना बोला
मेरे पास नहीं थे टूटे पैसे,
पचास का नोट कैसे दे देती,
मैं कुछ न कर पायी
... ...
ये बेचैनी, ये घुटन
कुछ न कर पाने की
सालती है मुझे अन्दर तक
और मैं घबराकर
छिपा लेती हूँ तुम्हारे सीने में
अपना चेहरा,
आराम की तलाश में,
पर दिखती हैं मुझे
दूर तक फैली मलिन बस्तियाँ,
नाक बहाते, गन्दे, नंगे-अधनंगे बच्चे,
उनको भूख से बिलखते,
आधी रोटी के लिये झगड़ते,
बीमारी से मरते देखने को विवश
माँ-बाप.
... ...
तुम सहलाते हो मेरे बालों को,
और चूम के गालों को हौले से
कहते हो कानों में कुछ प्रेम भरी
मीठी सी बातें,
पर सुनाई देती हैं मुझे
कुछ और ही आवाज़ें
"दीदी भूख लगी है"
"बाबू रोटी तो लइ लेवै दो"
"दीदी भूख लगी है"
गूँजती हैं ये आवाज़ें मेरे कानों में
बार-बार, लगातार,
वो जादुई छुअन तुम्हारे हाथों की
महसूस करती हूँ, अपने शरीर पर
और सोचती हूँ
कौन सी भूख ज़्यादा बड़ी है???