शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

नमन

जिसने मुझे
उँगली पकड़कर
चलना नहीं सिखाया
कहा कि खुद चलो
गिरो तो खुद उठो,
जिसने राह नहीं दिखाई मुझे
कहा कि चलती रहो
राह बनती जायेगी,
जिसने नहीं डाँटा कभी
मेरी ग़लती पर
लेकिन किया मजबूर
सोचने के लिये
कि मैंने ग़लत किया,
जिसने कभी नहीं फेरा
मेरे सिर पर हाथ
दुलार से
पर उसकी छाँव को मैंने
प्रतिपल महसूस किया,
जिसने खर्च कर दी
अपनी पूरी उम्र
और जमापूँजी सारी
मुझे पढ़ाने में
दहेज के लिये
कुछ भी नहीं बचाया,
आज नमन करता है मन
उस पिता को
जिसने मुझे
स्त्री या पुरुष नहीं
इन्सान बनकर
जीना सिखाया.

13 टिप्‍पणियां:

  1. हमारा भी नमन उसे, जिसने आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनाया!!

    बहुत उम्दा!!

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  2. मेरा भी नमन उस देवतुल्य यशः काया को ...उनकी कीर्ति काया तो अमर है खुद उन्ही की के द्वारा पुष्पित पल्लवित वंश परम्परा में !

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  3. जिसने मुझे
    स्त्री या पुरुष नहीं
    इन्सान बनकर
    जीना सिखाया.

    सुन्दर भाव।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. बहुत सुन्दर भाव हैं। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर।

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  5. बहुत सुन्दर रचना दिल को छु गई.ऐसे सभी माता पिताओं को नमन!

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  6. हाँ यही ।
    अब लगा कि सहज कविता निःसृत हो गयी है सहजतः ही अनुभूति से ।
    नमन !

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  7. बेहद खूबसूरत व उम्दा भाव दिखा आपकी इस रचना में, बहुत-बहुत बधाई आपको इस लाजवाब रचना के लिए।

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  8. मुक्ति जी, आदाब
    मां के साथ हमारे जीवन में पिता की बहुत बड़ी भूमिका है
    लेकिन साहित्य में कम ही रचनाएं मिलती हैं उनके लिये
    आपने इस दिशा में भावपूर्ण कविता लिखी
    आपके जज्बात को सलाम
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  9. पिता !! एक अजीब एहसास है. कितना अपना .....
    अच्छा लिखा है. बधाई.

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  10. bahut bahut badhai ho aapko

    bahut sunder lekh hai aapke


    main to aapka fan ho gaya

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  11. आज नमन करता है मन
    उस पिता को
    जिसने मुझे
    स्त्री या पुरुष नहीं
    इन्सान बनकर
    जीना सिखाया. ....

    सच आपने मेरे दिल की बात कह दी....इन्सान बनो....नमन हर पिता को, मां को...जिसने हमें सीख दी इनसान बनने की.....

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