मुक्ति अगर कविता की बात करें तो सुंदर है। विचार की बात करें तो अधूरा है। पहली बात तो मां का दूध कर्ज नहीं होता। वह खून होता है शरीर का। कहते हैं जिन बच्चों को मां का दूध नहीं मिलता वे कमजोर रह जाते हैं। अधूरा इसलिए कहा मैंने,सच है कि स्त्री मां का कर्ज चुका सकती है मां बनकर। पर हम क्यों भूल रहे हैं कि मां बनने के लिए उसे एक पुरुष भी चाहिए होता है। दूसरे शब्दों में यदि इसे यूं कहा जाए कि आखिर वह कर्ज चुकाने के लिए पुरुष का सहारा ही लेती है न। इसलिए यह अवधारणा ही गड़बड़ है कि मां का दूध कर्ज होता है। माफ करें मेरे विचारों को पुरुषवादी खांचे में डालकर न देखें।
@ उत्साही जी, माँ का दूध क़र्ज़ नहीं होता, ये मैं नहीं मानती. माँ बनना सिर्फ फ़र्ज़ नहीं है, एक बहुत बड़ी बात है. जब स्त्री-पुरुष बच्चे होते हैं, तो इस बात को बिल्कुल समझ नहीं पाते. पर जब औरत खुद माँ बनती है और अपने बच्चे को नौ महीने कोख में रखती है, फिर उसे दूध पिलाती है तो वह माँ के सुख की जो अनुभूति करती है, वह पुरुष कभी नहीं कर सकता. यही कारण है कि बचपन में पिता को अधिक प्रेम करने वाली बेटी जब खुद माँ बनती है तो उसका माँ के प्रति अधिक झुकाव हो जाता है. कविता मैं विचार करके नहीं लिखती. मेरा ये कतई मतलब नहीं है कि पिता का महत्त्व नहीं है. मेरा कहना मात्र इतना है कि औरतों की सृजन की शक्ति उसका सबसे बड़ा सुख भी है. यह एक ऐसा सुख है जो पुरुषों को नहीं प्राप्त. माँ का क़र्ज़ तो कोई उतार ही नहीं सकता, पर औरत उसे महसूस कर सकती है और पुरुषों पर ये क़र्ज़ हमेशा रहता है क्योंकि वो उसे महसूस नहीं कर सकता, सृजन का एक भाग होते हुए भी वह उसके अनुभव से वंचित रहता है.
मुक्ति आपकी इस व्याख्या से सहमति है। आपने सही कहा कि स्त्री को मातृत्व के नाते जो सुख और संतोष मिलता है वह पुरुष को चाहकर भी नहीं मिल सकता। हां एक मां पिता की भूमिका भी निभा सकती है। पर पिता मां की भूमिका में भी अधूरा ही होता है। यह भी सच है कि अच्छी कविता विचार करके नहीं लिखी जाती। पर एक अच्छी कविता विचार तो बन ही जाती है न। अन्यथा न लें। आपकी कविता में समझ और विचारों की जो गूंज है वह एक प्रतिनिधि स्वर है जो आपको इस ब्लाग जगत में औरों से अलग करता है। इसलिए मेरी अपेक्षा एक कवि के नाते आपसे कहीं अलग है। यह अपेक्षा है एक विचारवान कवि होने की। आखिर कविता हमारे लिए एक औजार की तरह है।
ek karj chuka sakta hai purush BAAP bankar pita bankar behad kaharab rachna, agar esme kuch adhura rah gaya ho to ese dobara se add ka len aradhan didi
कोई शक नहीं मां के दूध का कर्ज नहीं उतारा जा सकता। पर सवाल वही है कि क्या पिता का कर्ज उतारा जा सकता है। मां के पैरों से और पिता के हाथों में जन्नत का रास्ता जाता है। फिर एक के बिना दूसरा कैसे..? दोनो अकेले..आधे अधूरे.... मां नहीं....सुख का आंचल नहीं पिता नहीं..उम्मीदों का सहारा नहीं मात-पिता....दो पर हमारी एक ताकत
मुक्ति , मैं तो यही कहूँगा दोनों ही ऋण चुकाना सहज नहीं -मातृ ऋण और पित्र ऋण ! हाँ अपने नारी के चिरन्तन मातृत्व से भरपाई आकांक्षित की है -यह एक सुन्दर ख़याल है ! सुन्दर संक्षिप्त ,भाव पूर्ण कविता ! (संक्षिप्तता वाक विदग्धता की आत्मा है -अंगरेजी से गलत अनुवाद तो नहीं हुआ :) }
सहमत हूँ! इस बहस में नहीं पड़ना चाहता के कौन कितना ज़रूरी है! ये पढ़े-लिखे लोगों का काम है..... मैं तो बेशक हूँ..... मरते दम तक कर्ज़दार अपनी माँ का! वो हालांकि ऐसा नहीं मानती, ये उसकी महानता है!
क्या बात कही है...गहन चिंतन .वाकई ये क़र्ज़ नहीं उतर सकता .. देरी से आने की माफ़ी चाहती हूँ इधर कुछ दिनों से थोडा व्यस्त हूँ ..काफी कुछ पढ़ना बाकि है ....
awesome... simply written and well presented... And I don't think its incomplete... People who are talking about "maa ka doodh khoon hota hai" yell them that now techno is so much developed that we don't need a male to be a mother... Obvious father is also having important part but when its comes in front of mother, nobody stands... and what about the 9 months... ask them... Heartly thanks...
खूबसूरत और गहन चिंतन ....
जवाब देंहटाएंक़र्ज़ तो नहीं उतार सकता बस grudge करता रहता है
सही कहा
जवाब देंहटाएंक़र्ज़ रहता तो है ..!
जवाब देंहटाएंमुक्ति अगर कविता की बात करें तो सुंदर है।
जवाब देंहटाएंविचार की बात करें तो अधूरा है। पहली बात तो मां का दूध कर्ज नहीं होता। वह खून होता है शरीर का। कहते हैं जिन बच्चों को मां का दूध नहीं मिलता वे कमजोर रह जाते हैं।
अधूरा इसलिए कहा मैंने,सच है कि स्त्री मां का कर्ज चुका सकती है मां बनकर। पर हम क्यों भूल रहे हैं कि मां बनने के लिए उसे एक पुरुष भी चाहिए होता है। दूसरे शब्दों में यदि इसे यूं कहा जाए कि आखिर वह कर्ज चुकाने के लिए पुरुष का सहारा ही लेती है न। इसलिए यह अवधारणा ही गड़बड़ है कि मां का दूध कर्ज होता है।
माफ करें मेरे विचारों को पुरुषवादी खांचे में डालकर न देखें।
@ उत्साही जी, माँ का दूध क़र्ज़ नहीं होता, ये मैं नहीं मानती. माँ बनना सिर्फ फ़र्ज़ नहीं है, एक बहुत बड़ी बात है. जब स्त्री-पुरुष बच्चे होते हैं, तो इस बात को बिल्कुल समझ नहीं पाते. पर जब औरत खुद माँ बनती है और अपने बच्चे को नौ महीने कोख में रखती है, फिर उसे दूध पिलाती है तो वह माँ के सुख की जो अनुभूति करती है, वह पुरुष कभी नहीं कर सकता. यही कारण है कि बचपन में पिता को अधिक प्रेम करने वाली बेटी जब खुद माँ बनती है तो उसका माँ के प्रति अधिक झुकाव हो जाता है.
जवाब देंहटाएंकविता मैं विचार करके नहीं लिखती. मेरा ये कतई मतलब नहीं है कि पिता का महत्त्व नहीं है. मेरा कहना मात्र इतना है कि औरतों की सृजन की शक्ति उसका सबसे बड़ा सुख भी है. यह एक ऐसा सुख है जो पुरुषों को नहीं प्राप्त. माँ का क़र्ज़ तो कोई उतार ही नहीं सकता, पर औरत उसे महसूस कर सकती है और पुरुषों पर ये क़र्ज़ हमेशा रहता है क्योंकि वो उसे महसूस नहीं कर सकता, सृजन का एक भाग होते हुए भी वह उसके अनुभव से वंचित रहता है.
मुक्ति आपकी इस व्याख्या से सहमति है। आपने सही कहा कि स्त्री को मातृत्व के नाते जो सुख और संतोष मिलता है वह पुरुष को चाहकर भी नहीं मिल सकता। हां एक मां पिता की भूमिका भी निभा सकती है। पर पिता मां की भूमिका में भी अधूरा ही होता है।
जवाब देंहटाएंयह भी सच है कि अच्छी कविता विचार करके नहीं लिखी जाती। पर एक अच्छी कविता विचार तो बन ही जाती है न।
अन्यथा न लें। आपकी कविता में समझ और विचारों की जो गूंज है वह एक प्रतिनिधि स्वर है जो आपको इस ब्लाग जगत में औरों से अलग करता है। इसलिए मेरी अपेक्षा एक कवि के नाते आपसे कहीं अलग है। यह अपेक्षा है एक विचारवान कवि होने की। आखिर कविता हमारे लिए एक औजार की तरह है।
सत्य वचन हैं ,
जवाब देंहटाएंलेकिन हम मां बन कर भी मां का या पिता का क़र्ज़ कभी नहीं उतार सकते
ek karj chuka sakta hai purush BAAP bankar pita bankar
जवाब देंहटाएंbehad kaharab rachna, agar esme kuch adhura rah gaya ho to ese dobara se add ka len aradhan didi
srajan ka jo sukh orat pati hai vo purus kvi mhsus v nhi kr skta..sunder rachna.
जवाब देंहटाएंकोई शक नहीं मां के दूध का कर्ज नहीं उतारा जा सकता। पर सवाल वही है कि क्या पिता का कर्ज उतारा जा सकता है। मां के पैरों से और पिता के हाथों में जन्नत का रास्ता जाता है। फिर
जवाब देंहटाएंएक के बिना दूसरा कैसे..?
दोनो अकेले..आधे अधूरे....
मां नहीं....सुख का आंचल नहीं
पिता नहीं..उम्मीदों का सहारा नहीं
मात-पिता....दो पर हमारी एक ताकत
मुक्ति ,
जवाब देंहटाएंमैं तो यही कहूँगा दोनों ही ऋण चुकाना सहज नहीं -मातृ ऋण और पित्र ऋण ! हाँ अपने नारी के चिरन्तन मातृत्व से भरपाई आकांक्षित की है -यह एक सुन्दर ख़याल है !
सुन्दर संक्षिप्त ,भाव पूर्ण कविता ! (संक्षिप्तता वाक विदग्धता की आत्मा है -अंगरेजी से गलत अनुवाद तो नहीं हुआ :) }
fully agree with u mukti...gud one!
जवाब देंहटाएंbshut khoob mukti....
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ!
जवाब देंहटाएंइस बहस में नहीं पड़ना चाहता के कौन कितना ज़रूरी है! ये पढ़े-लिखे लोगों का काम है.....
मैं तो बेशक हूँ..... मरते दम तक कर्ज़दार अपनी माँ का!
वो हालांकि ऐसा नहीं मानती, ये उसकी महानता है!
क्या बात कही है...गहन चिंतन .वाकई ये क़र्ज़ नहीं उतर सकता ..
जवाब देंहटाएंदेरी से आने की माफ़ी चाहती हूँ इधर कुछ दिनों से थोडा व्यस्त हूँ ..काफी कुछ पढ़ना बाकि है ....
कविता और राजेश उत्साहीजी से टिप्पणी वार्ता बहुत सुन्दर लगी।
जवाब देंहटाएंये न लिखतीं तो शायद कुछ और होता....
जवाब देंहटाएं"कुछ हद तक... "
पर अब तो अक्षरशः सहमत!
awesome...
जवाब देंहटाएंsimply written and well presented...
And I don't think its incomplete... People who are talking about "maa ka doodh khoon hota hai" yell them that now techno is so much developed that we don't need a male to be a mother...
Obvious father is also having important part but when its comes in front of mother, nobody stands... and what about the 9 months... ask them...
Heartly thanks...