सोमवार, 4 मई 2009

शीर्षकहीन

आज मुझे अपना ब्लॉग लिखते हुए लगभग चार महीने हो गए हैं और पहली बार मैं कविता नहीं लिख रही हूँ । मुझ पर किसी ने किसी अन्य की कविता से 'ऊर्जा 'उधार लेने का इल्जाम लगाया है । बस ,इसे सीधे-सीधे चोरी न कहकर एक सभ्य सा शब्द रख दिया । मैं किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती ,हो सकता है कि उनका उद्देश्य मुझे दुःख पहुँचाना न रहा हो ,पर मुझे दुःख हुआ तो मैंने कह दिया .ऐसे ही जैसे मैं अनायास ही कविता कह जाती हूँ .

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी जानकारी में है कि पहले आपकी कविता छपी ...

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  2. वाकई कविताएं समानता तो रखती हैं ...लेकिन ये क्यों नहीं
    समझा जा सकता कि आज की सूरते हाल में हर संवेदनशील व्यक्ति के यही विचार हैं... फिर हकीर जी की कविता का भी ज़िक्र है , उर्जा naturica ने ली ऐसा कबूल किया गया है ...

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  3. तौबा करता हूँ....
    अगर यही नहीं मुअय्यन है कि किसी को तो चोर होना ही है तो किसी आरोप की बात छोडिये उल्टे मैंने तो अपनी टिप्पणी 'कबूलनामा' में स्वीकार किया है कि मुझे अपनी कविता 'सुनो बन्दर से बने हुए डार्विन !'के लिए आपकी और 'हरकीरत हकीर ' की कविता से उर्जा मिली है ,जिसके लिए मैं आप दोनों का कर्जदार हूँ......
    ख़ैर..... आपको कष्ट पहुँचा ....क्षमा प्रार्थी हूँ ।

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  4. mukti:-mr. tirua i am sorry .i really didn't got the exact meaning of your"kaboolnama".i think i was wrong ,but still i was very sad.infact i am oversensitive.it was a matter of misunderstanding.
    deepak tiruwa :-चलो इस प्रकरण का पटाक्षेप हुआ , नीता (दूसरा-पहलू) ने निरर्थक विवाद की स्थिति के निस्तारण में जोर देकर पहल की. और उसकी कोशिश आखिर रंग लायी .... उसे शुक्रिया नहीं कहूँगा , पिछली दफा बनाये अपने भयानक कार्टून के लिए अभयदान देता हूँ. उसकी दोस्ती अनमोल है !

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  5. बारीकी से देखा जाय तो चोरी कही न कही तो सभी करते हैं.
    भाव भी तो परिस्तिथियों, अपने अध्धयन की ही तो उपज होते हैं. और यह सब हमें कहीं न कहीं से उधार लेना ही पड़ता है.

    ऊपर वाले ने भी सभी को शरीर दिया है और हम उसे अपने हिसाब से संवारते है, सुन्दर बनाते हैं अदि अदि....

    चोरी तो तब होती है जब हूँ-बी हूँ छाप दिया जाय. विवाद के बारे में न तो मुझे जानकारी है और न मै किसी का समर्थन कर रहा हूँ. ये मेरे अपने विचार हैं.

    इतनी छोटी सी घटनाओं से रचना कर्म रुकना नहीं चाहिए बस यही इल्तिजा है.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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