कभी सोचते हैं हम
फाइव-स्टार होटलों में
छप्पन-भोग खाने से पहले
कि कितने ही लोग
एक जून रोटी के बगैर
तड़प-तड़प के मरते हैं ।
कभी सोचते हैं हम
आलीशान मालों में
कीमती कपड़े खरीदने से पहले
कि कितने बच्चे और बूढे
फटे -चीथड़े लपेटे
गर्मी में झुलसते
सर्दी में ठिठुरते हैं ।
कभी सोचते हैं हम
अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों को
सैकड़ों लीटर पानी से
नहलाने से पहले
कि इसी देश के किसी कोने में
लोग बूँद-बूँद पानी को तरसते हैं ।
सोचते हैं हम कि
अकेले हमारे सोचने से
क्या फर्क पड़ेगा
कभी सोचकर तो देखें
एक बार तो मन ठिठकेगा...
(यह कविता पिछले वर्ष मजदूर दिवस पर लिखी थी...आज भी कुछ नहीं बदला है...और आगे भी शायद नहीं बदलेगा...पर, क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ??)
वाकई, सोचने मात्र से ही मन ठिठक रहा है।
जवाब देंहटाएंगाँधी , संविधान और माओ...
जवाब देंहटाएंअगर ये सब सोचने लगें वो तो फिर .....
जवाब देंहटाएंमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
कबूलनामा
जवाब देंहटाएंसुनो ...! बन्दर से बने हुए 'डार्विन'...आपकी इस कविता Harkirat Haqeer की कविता "रब्बा ! यह कैसा इंसाफ है तेरा......"से मिली
ऊर्जा इस रचना में उधार है ....
mukti:-मैं आपकी इस टिप्पणी का यह हिस्सा नहीं समझ पाई -"ऊर्जा इस रचना में उधार है .'आपकी कविता मुझे बहुत सामयिक लगी .
जवाब देंहटाएंnaturica :-मेरी जानिब से ये साफगोई जैसा कुछ है ,शायद वही हो....
समाज को आईना दिखाने का अच्छा प्रयास... बहुत बहुत धन्यवाद आपको..
जवाब देंहटाएंसच मे बहुत अंधेर है,हम सोच रहे है.
पर खुद हँसते हुए दूसरों के आँसू पोंछ रहे है.
वैसे तो बड़ी बड़ी सोच और समझदारी दिखाते है,
पर हक़ीक़त मे अमल करने से कतराते है.
इंसानियत आज इसी बात पर बैठ कर रो रहा है,
मानवता शब्द अपना अस्तित्व खो रहा है.