शनिवार, 11 जुलाई 2009

एक छोटे शहर की लड़की (२)

रिक्शे पर बैठी जो हमेशा
सखियों के साथ
बस की भीड़ में आज
धक्के खाती है,
शाम को कमरे पर आकर
एक-एक पैसे का
हिसाब लगाती है,
पढाई भी करती है
काम पर भी जाती है,
परम्परा और आधुनिकता में
मेल बैठाती है
महानगर की लड़कियों से
अलग नज़र आती है
एक छोटे शहर की लड़की
जब महानगर में आती है
धीरे-धीरे
भोली-भाली सकुचाई से
सयानी बन जाती है.

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