बुधवार, 2 दिसंबर 2009

हीरा

अपने बाबूजी की थी मैं
अनगढ़ हीरा
सँवारा,तराशा बनाया मुझे,
बनाकर मुझको
एक अनमोल हीरा
अपनी ही चमक से
चमकाया मुझे,
अपने माँ की थी मैं
जिद्दी बिटिया
डाँटा-डपटा, समझाया मुझे,
दुनियादारी की बातें बताकर
रानी बिटिया
बनाया मुझे,
जब बड़ी हुयी तो
बड़े जतन से
ऊँचे घराने में ब्याहा मुझे,
ससुराल आकर
कहीं खो गयी मैं,
मैं, मैं न रही
कुछ और हो गयी मैं,
मैं थी कहीं का पौधा
कहीं और
गड़ गयी हूँ,
ससुराल के कीमती गहनों में
जड़ गयी हूँ.

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा!!

    मुझे लगता है कि ससुराल के गहने इस बेहतरीन हीरे के लगने से कीमती हो गये है.

    जवाब देंहटाएं
  2. ससुराल के कीमती गहनों में

    जड़ गयी हूँ.
    बहुत सुन्दर ढंग से बयान किया व्यथा को

    जवाब देंहटाएं
  3. कोई अकुलाहट छलक पडी है इन पंक्तियों में ! किन्तु यही तो है जीवन है अनेक विपर्ययों और बिडम्बनाओं से भरा हुआ !

    जवाब देंहटाएं
  4. कथ्य उम्दा
    पर कविता बनाने के लिये थोडी और मेहनत की दरकार
    शुभकामनाओं सहित

    जवाब देंहटाएं
  5. मैं, मैं न रही

    कुछ और हो गयी मैं,

    मैं थी कहीं का पौधा

    कहीं और

    गड़ गयी हूँ,

    ससुराल के कीमती गहनों में

    जड़ गयी हूँ.

    bahut hi marmik kavita hai yah.....aur bilkul sach.....

    जवाब देंहटाएं