गुरुवार, 30 सितंबर 2010

रूसी कवि "येव्गेनी येव्तुशेंको" की एक कविता

हे भगवान !
कितने झुक गए हैं स्त्री के कंधे
मेरी उँगलियाँ धँस जाती हैं
शरीर में उसके भूखे, नंगे
और आँखें उस अनजाने लिंग की
चमक उठीं
वह स्त्री है अंततः
यह जानकर धमक उठीं
      फिर उन अधमुंदी आँखों में
      कोहरा सा छाया
      सुर्ख अलाव की तेज अगन का
      भभका आया
      हे राम मेरे ! औरत को चाहिए
      कितना कम
      बस इतना ही
      कि उसे औरत माने हम

(भाषांतर: अनिल जनविजय, "स्त्री: मुक्ति का सपना" पुस्तक से साभार )

25 टिप्‍पणियां:

  1. ha orat ko chahiye kya ki use bs ek orat mana jaye,us se alg kuch v man kr aap us ke jine ka haq v chhin lete ho.to kya khe vo......

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  2. कई बार कुछ कहते नहीं बनता है। सच में हे भगवान..........

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  3. बहुत अच्छी रचना प्रस्तुत की है...
    पढ़वाने के लिए शुक्रिया.

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  4. ऊँ ऊँ ..रसन तो आती नहीं -एक काम कीजिये इस का कोई अंगरेजी अनुवाद हो तो क्या लगा सकेंगीं प्लीज !

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति. पढ़वाने के लिए शुक्रिया.

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  6. यह एक अच्छी कविता है । कवि का अंतर्निहित दुख यह भी है कि स्त्री को इतना कम भी अप्राप्य है ।

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  7. Kam chahiye isiliye nahi milta...kaash k hum bhi zidd karna seekh jate...

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  8. हमारे लेवल से ऊपर की बात है...
    आशीष
    --
    प्रायश्चित

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  9. बहुत ही अलग विचार देने वाली कविता देने के लिएँ कवियत्री और अनुवादक का धन्यवाद

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  10. बहुत सुंदर रचना !
    पढवाने के लिए धन्यवाद !

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  11. हे राम मेरे ! औरत को चाहिए
    कितना कम
    बस इतना ही
    कि उसे औरत माने हम

    बस यही तो एक चाहत होती है और उसे बहुत सुन्दरता से पिरोया है…………पढवाने के लिये आभार्।

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  12. बहुत खुबसूरत कविता और उतना ही खुबसूरत अनुवाद |

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  13. बहुत सुन्दर..नारी पर बनी ये सुन्दर रचना ब्लॉग में शेयर करने के लिए धन्यवाद..

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  14. बहुत ही झन्नाटेदार...एक सार्थक कविता !

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  15. bahut hi sundar, shukriya share karne k liye.....

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