शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

तुम्हारी मर्ज़ी

किसने कहा था
खोल दो खिड़कियाँ?
अब बौछारें पड़ेंगी
तो उनकी छींटें
भिगो देंगी घर के कोने,
हवाएँ आयेंगीं
और फड़फड़ायेंगे
डायरी के पन्ने,
कुछ तिनके, कुछ धूल,
कुछ सूखे पत्ते,
डाल से टूटकर आ जायेंगे
हवाओं के साथ अनचाहे ही,
ताज़ी हवा और रोशनी के लिये
ये सब तो
सहना ही पड़ेगा,
या फिर...
बंद कर लो खिड़कियों को,
और बैठे रहो भीतर
साफ़-सुथरे,
अकेले,
गुमसुम,
तुम्हारी मर्ज़ी.

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भावो से सजी रचना अच्छी लगी!!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  2. खोल दो खिड़कियाँ?
    अब बौछारें पड़ेंगी
    तो उनकी छींटें
    भिगो देंगी घर के कोने,
    हवाएँ आयेंगीं
    और फड़फड़ायेंगे
    डायरी के पन्ने,
    कुछ तिनके, कुछ धूल,
    कुछ सूखे पत्ते,
    डाल से टूटकर आ जायेंगे

    क्या नहीं याद करा दिया मुक्ति..बारिश की छिटें..डायरी के पन्ने..कुछ धुल, कुछ सुखे पत्ते....आज भी सबकुछ ऐसा ही है....पर ज़िंदगी की आपाधापी में इन्हें महसूस करने का वक्त कहां मिलता है..अब तो खिड़की बंद करके रखते हैं....डर कहीं ठंडी हवा के झोंके बीमार न कर दें...

    निसंदेह....सीधी, सरल औऱ श्रेष्ठ रचना...

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  3. मैं तो खिड़कियाँ खोल चुका हूँ
    साफ सुथरे घर में बैठने की आदत जो नही है.
    बहुत सुन्दर रचना

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  4. उफ़ बिल्लो अर्रर बिजली रानी गयीं और ले गईं मेरी पहली टिप्पणी भी -पहली टिप्पणी ..पहला प्यार ,,,ओके फिर कोशिश करता हूँ ..
    बंद कमरे में रहने से सर्वदा उचित ही है खिडकियों का खोल देना
    उठाईये फागुन की मंद शीतल मलयज समीर (मार्निंग ब्रीज ) के संस्पर्श की आनंदानुभूति .
    अब जुकाम वगैरह जैसे छोटे खतरों से अनेक बृहत्तर संभावनाओं से वंचित रह जाना कहाँ की बुद्धिमानी है ?.
    कहा भी गया है -आ नो भद्रा क्रतवो यांत विश्वतः -लेट नोबेल आईड़ीयाज कम टू मी फ्राम आल सायिड्स ऑफ़ द वर्ल्ड !

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  5. 'मुक्ति’ जी आदाब
    आपकी कविता यादों की बौछार भी साथ लाई हैं.
    बधाई
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  6. ताज़ी हवा और रोशनी के लिये
    ये सब तो
    सहना ही पड़ेगा,

    बहुत खूब मुक्ति जी
    मानव मन के मनोविज्ञान को
    बड़ी ख़ूबसूरती से
    प्रभावशाली शब्दों में ढाल दिया है आपने
    बाहर या अन्दर
    सभी कुछ इंसान की अपनी सोच पर ही निर्भर है
    बाहरी आगमन
    और
    अन्दूरनी अपनापन
    दोनों में मेल बिठाना ही होगा

    बहुत ही अच्छी रचना !!

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  7. @MUFLIS,
    आप ही समझ पाये हैं इस कविता के मर्म को. वस्तुतः यह मानव-मन, विशेषतः नारी मन से पूछा गया प्रश्न है कि उसे बाहर की ताज़ी हवा चाहिये या अन्दर की घुटन. धन्यवाद!!

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  8. भीतर का अंधेरा मिटाने के लिए बाहर के उजाले तो ज़रूरी हैं ..बस एक नियंत्रण रेखा/या कहिए मात्रा तय करनी पड़ेगी.
    यादें भिगोती तो हैं magar.. कभी कभी इन्हीं की नमी में उम्मीदों के अंकुर फूट पाते हैं.

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  9. खोल दो खिड़कियाँ?
    अब बौछारें पड़ेंगी
    तो उनकी छींटें
    भिगो देंगी घर के कोने,
    हवाएँ आयेंगीं
    और फड़फड़ायेंगे
    डायरी के पन्ने,
    कुछ तिनके, कुछ धूल,
    कुछ सूखे पत्ते,
    डाल से टूटकर आ जायेंगे
    .....
    या फिर...
    बंद कर लो खिड़कियों को,
    और बैठे रहो भीतर
    साफ़-सुथरे,
    अकेले,
    गुमसुम,
    तुम्हारी मर्ज़ी.
    bahut khoob likha badhiya bahut achcha

    जवाब देंहटाएं
  10. Bahut...khoob
    ab man ghutan nahi......taji hawaye lega.bahut sahli ghutan.

    Nice....very nice.

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  11. Please read my blog.
    http://ravirajbhar.blogspot.com

    i am from mau...i am glad after know about u...!

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