(नये साल की पूर्व संध्या पर वर्ष की अन्तिम पोस्ट)
तुझमें जो आग है
उस आग को तू जलने दे
अपने सीने में उसे
धीरे-धीरे पलने दे...
भभक कर जलेगी
तो राख बन जायेगी
धुयें के साथ यूँ ही
आप से सुलगने दे...
उस पर आँसू न बहा
अश्क के छींटे मत दे
न अपने दिल को
इस आग में पिघलने दे...
.......
देख,
इक दिन ये आग
ज्वालामुखी बन जायेगी
हर सूखी, सड़ी-गली
चीज़ को जलायेगी
होता है ध्वंस तो फिर
एक बार हो जाने दे
बेकार चीज़ों को
इस आग में जल जाने दे
उनकी तू फ़िक्र न कर
राख पर जो रोते हैं
ध्वंस की राख में
सृजन के बीज छिपे होते हैं
सोमवार, 28 दिसंबर 2009
शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
अस्तित्व
मैं सोई थी
मीठे सपनों में
खोई थी
उस गहरी नींद से
जगा दिया
मैंने
अपने अस्तित्व को
तुममें मिला दिया था
तुमने
ठोकर लगाकर मुझे
मेरे अस्तित्व का
एहसास करा दिया.
मीठे सपनों में
खोई थी
उस गहरी नींद से
जगा दिया
मैंने
अपने अस्तित्व को
तुममें मिला दिया था
तुमने
ठोकर लगाकर मुझे
मेरे अस्तित्व का
एहसास करा दिया.
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
तुम्हारा आना
(एक सच्चा प्यार किस तरह से किसी के अन्दर पूरी इन्सानियत के प्रति आस्था पैदा कर देता है...इस बात को व्यक्त करती सात साल पहले लिखी एक कविता...)
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ बदल गया है
बदल गये हैं गीतों के मायने
वो मन की गहराइयों तक
उतरने लगे हैं
देने लगे हैं आवाज़
मेरी भावनाओं को
मानो मेरी ही बातें
कहने लगे हैं,
बदल गया है मौसम का अन्दाज़
वो बातें करता है मुझसे
चिड़ियों के चहकने से
बारिश के रिमझिम से
मेरे साथ हँसता-रोता है मौसम
पहले सा नहीं रहा,
बदल गयी मेरे पाँवों की थिरकन
मेरा बोलना, मेरा देखना
मैं खुद को ही अब
पहचान नहीं पाती
सब बदल गया है,
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ नया हुआ है
पहले की तरह अब
नहीं लगता डर मुझे
पुरुषों पर
कुछ-कुछ विश्वास हो चला है.
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ बदल गया है
बदल गये हैं गीतों के मायने
वो मन की गहराइयों तक
उतरने लगे हैं
देने लगे हैं आवाज़
मेरी भावनाओं को
मानो मेरी ही बातें
कहने लगे हैं,
बदल गया है मौसम का अन्दाज़
वो बातें करता है मुझसे
चिड़ियों के चहकने से
बारिश के रिमझिम से
मेरे साथ हँसता-रोता है मौसम
पहले सा नहीं रहा,
बदल गयी मेरे पाँवों की थिरकन
मेरा बोलना, मेरा देखना
मैं खुद को ही अब
पहचान नहीं पाती
सब बदल गया है,
मेरी ज़िन्दगी में तुम्हारे आने से
कुछ नया हुआ है
पहले की तरह अब
नहीं लगता डर मुझे
पुरुषों पर
कुछ-कुछ विश्वास हो चला है.
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
पर... ... माँ
ग़लती करती
तो डाँट खाती
दीदी से भी
और बाबूजी से भी
सब सह लेती
पर
सह न पाती माँ
तुम्हारा एक बार
गुस्से से आँखें तरेरना
..........................
कई तरह की
सज़ाएँ पायीं
मार भी खायी
कई बार
पर
नहीं भूलती माँ
तुम्हारी वो अनोखी सज़ा
कुछ भी न कहना
सभी काम करते जाना
एक लम्बी
चुप्पी साध लेना
........................
बाबूजी का लाड़
अपने जैसा था
भाई का प्यार भी
अनोखा था
बहन के स्नेह का
कोई सानी नहीं
पर
इन सबसे बढ़कर था माँ
थपकी देकर
सुलाते हुये तुम्हारा
मेरे सिर पर
हाथ फेरना.
......................
तो डाँट खाती
दीदी से भी
और बाबूजी से भी
सब सह लेती
पर
सह न पाती माँ
तुम्हारा एक बार
गुस्से से आँखें तरेरना
..........................
कई तरह की
सज़ाएँ पायीं
मार भी खायी
कई बार
पर
नहीं भूलती माँ
तुम्हारी वो अनोखी सज़ा
कुछ भी न कहना
सभी काम करते जाना
एक लम्बी
चुप्पी साध लेना
........................
बाबूजी का लाड़
अपने जैसा था
भाई का प्यार भी
अनोखा था
बहन के स्नेह का
कोई सानी नहीं
पर
इन सबसे बढ़कर था माँ
थपकी देकर
सुलाते हुये तुम्हारा
मेरे सिर पर
हाथ फेरना.
......................
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
सन्नाटा
चारों तरफ़ सन्नाटा है
हालाँकि शोरगुल भी है
नारे भी हैं
चीखती-चिल्लाती आवाज़ें भी हैं
फिर भी सन्नाटा है
इसलिये कि
आवाज़ें नहीं उठतीं सबके लिये
उठती हैं सिर्फ़ अपने लिये,
इसलिये कि
कोई आवाज़
नहीं उठती उनके खिलाफ़
जिन्होंने खरीद लिया है
सभी की आवाज़ों को
अलग-अलग तरीकों से,
हम सभी की आवाज़ें
बिक गयी हैं
किसी न किसी के हाथों
हम सभी हो गये हैं गूँगे
और बेआवाज़
इसीलिये चारों तरफ़
सन्नाटा ही सन्नाटा है.
हालाँकि शोरगुल भी है
नारे भी हैं
चीखती-चिल्लाती आवाज़ें भी हैं
फिर भी सन्नाटा है
इसलिये कि
आवाज़ें नहीं उठतीं सबके लिये
उठती हैं सिर्फ़ अपने लिये,
इसलिये कि
कोई आवाज़
नहीं उठती उनके खिलाफ़
जिन्होंने खरीद लिया है
सभी की आवाज़ों को
अलग-अलग तरीकों से,
हम सभी की आवाज़ें
बिक गयी हैं
किसी न किसी के हाथों
हम सभी हो गये हैं गूँगे
और बेआवाज़
इसीलिये चारों तरफ़
सन्नाटा ही सन्नाटा है.
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
एक नारी की कविता
मेरी कविता
सायास नहीं बनायी जाती
भर जाता है जब
मन का प्याला
लबालब
भावों और विचारों से
तो निकल पड़ती है
अनायास यूँ ही
पानी के कुदरती
सोते की तरह
और मैं
रहने देती हूँ उसे
वैसे ही
बिना काटे
बिना छाँटे
मेरी कविता
अनगढ़ है
गाँव की पगडंडी के
किनारे पड़े
अनगढ़ पत्थर की तरह
आसमान में
बेतरतीब बिखरे
बादलों की तरह
जंगल में
खुद से उग आयी
झाड़ी के फूलों की तरह
अधकचरे अमरूद के
बकठाते स्वाद की तरह
मेरी कविता
नहीं मानना चाहती
शैली, छन्द और
लयों के बंधन
मेरी कविता
जैसी है
उसे वैसी ही रहने दो
सदियों से रोका गया है
बांध और नहरें बनाकर
आज
पहाड़ी नदी की तरह
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
उद्दाम वेग से बहने दो
बनाने दो उसे
खुद अपना रास्ता
टूटी-फूटी भाषा में
जो मन में आये
कहने दो.
सायास नहीं बनायी जाती
भर जाता है जब
मन का प्याला
लबालब
भावों और विचारों से
तो निकल पड़ती है
अनायास यूँ ही
पानी के कुदरती
सोते की तरह
और मैं
रहने देती हूँ उसे
वैसे ही
बिना काटे
बिना छाँटे
मेरी कविता
अनगढ़ है
गाँव की पगडंडी के
किनारे पड़े
अनगढ़ पत्थर की तरह
आसमान में
बेतरतीब बिखरे
बादलों की तरह
जंगल में
खुद से उग आयी
झाड़ी के फूलों की तरह
अधकचरे अमरूद के
बकठाते स्वाद की तरह
मेरी कविता
नहीं मानना चाहती
शैली, छन्द और
लयों के बंधन
मेरी कविता
जैसी है
उसे वैसी ही रहने दो
सदियों से रोका गया है
बांध और नहरें बनाकर
आज
पहाड़ी नदी की तरह
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
उद्दाम वेग से बहने दो
बनाने दो उसे
खुद अपना रास्ता
टूटी-फूटी भाषा में
जो मन में आये
कहने दो.
लेबल:
आकाश,
औरत,
कविता,
दर्द,
दिल की नरमी,
फूल,
बादल,
स्वतंत्रता
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
हीरा
अपने बाबूजी की थी मैं
अनगढ़ हीरा
सँवारा,तराशा बनाया मुझे,
बनाकर मुझको
एक अनमोल हीरा
अपनी ही चमक से
चमकाया मुझे,
अपने माँ की थी मैं
जिद्दी बिटिया
डाँटा-डपटा, समझाया मुझे,
दुनियादारी की बातें बताकर
रानी बिटिया
बनाया मुझे,
जब बड़ी हुयी तो
बड़े जतन से
ऊँचे घराने में ब्याहा मुझे,
ससुराल आकर
कहीं खो गयी मैं,
मैं, मैं न रही
कुछ और हो गयी मैं,
मैं थी कहीं का पौधा
कहीं और
गड़ गयी हूँ,
ससुराल के कीमती गहनों में
जड़ गयी हूँ.
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