बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

एक प्रौढ़ लड़की

रिसता है कुछ दिल से
आँखों के रास्ते
मन के ज़ख्मों के
टाँके टूट गये हैं
शायद,
बड़ी मुश्किल से
सुखाती हूँ इन्हें
फिर कोई
पूछ ही लेता है
घर के बारे में
माँ-पिता के बारे में
अजूबा सा लगता होगा
एक प्रौढ़ लड़की
बिना अभिभावक के
अकेले
कैसे काटती है
ज़िंदगी,
जी लेगी वो
अगर दुनिया
ना कुरेदे
उसके ज़ख्मों को

सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

अधूरापन

कभी भावनाओं को
शब्द नहीं मिलते हैं
कभी शब्दों में
भाव नहीं
आ पाता है,
कभी खुशी में
दिल उदास होता है
कभी-कभी ग़म में भी
आराम आ जाता है
क्या हुआ?
हर बात अधूरी-सी
क्यों लगती है
ज़िन्दगी इतनी
उजड़ी उजड़ी-सी
क्यों लगती है?

रविवार, 4 अक्टूबर 2009

राहत

जो हुआ अच्छा हुआ
कुछ राज़ सामने आ गए
अच्छे-भले लोग भी
अपना चेहरा
दिखा गए
भ्रम में जीने से
फुर्सत मिली
सच जानकर राहत मिली