बुधवार, 31 मार्च 2010

वो नहीं ’गुड़ियाघर’ की नोरा जैसी.

जब उसने
एक-एक करके
झुठला दिये
उसके सभी आरोप,
काट दिये उसके सारे तर्क,
तो झुंझलाकर वह बोला,
"औरतें कुतर्की होती हैं
अपने ही तर्क गढ़ लेती हैं
बुद्धि तो होती नहीं
करती हैं अपने मन की"

वो सोचने लगी,
काश...वो बचपन से होती
ऐसी ही कुतर्की...,
गढ़ती अपने तर्क
बनाती अपनी परिभाषाएँ
करती अपने मन की,
पर अब
बहुत देर हो चुकी
क्या करे ???
वो नहीं...
'गुड़ियाघर' की नोरा जैसी.

23 टिप्‍पणियां:

  1. nice poem !!! but...किसी ग़लत बात का विरोध करने के लिये नोरा होने की ज़रूरत नहीं.

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  2. कविता गहरी है -मगर नारी के ऊपर कटाक्ष ठीक नहीं !

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  3. सरल भाषा में लिखी आपकी छोटी-छोटी कविताएं मुझे शुरु से ही अच्छी लगती रही हैं। लेकिन इस कविता ने कुछ उलझा इस मायने में दिया है कि तर्क और कुतर्क में फ़र्क करना शुरु से ही मुश्किल लगता रहा है। दूसरे अगर ‘वो’ बचपन से कुतर्की होती तो यही सब वो कर रही होती। ज़ुल्म की हदें टूट जाने पर यह सब करना तो समझ में भी आता है लेकिन बचपन से यही सब करने की मानसिकता ख़तरनाक है चाहे ’ये’ करे या ‘वो’। शायद थोड़ी लंबी बात-चीत का विषय है।

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  4. @ अरविन्द जी, किसी पर इल्जाम नहीं लगाया गया है. बस औरत की मज़बूरी को बताने की कोशिश है.
    @ संजय जी, अगर वो औरत बचपन से तर्क करती तो अपने माता-पिता को बता सकती कि वह क्या चाहती है. अपना मनपसन्द साथी चुन लेती. पर जीवन में एक मोड़ के बाद अपने मन का कर पाना कठिन होता है. सारी औरतें नोरा जैसी नहीं होतीं कि एक उम्र बीत जाने के बाद अपने अस्तित्व की तलाश में घर छोड़ दें.
    पुरुष जवाब देने वाली औरतों पर झट से कुतर्की होने का आरोप लगा देते हैं. अपनी बात कहना कुतर्की होना नहीं है. यहाँ कुतर्की शब्द का इस्तेमाल उसी दृष्टिकोण से किया गया है.

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  5. स्त्री की वेदना को कही अधिक गहरे व मार्मिक ढंग से व्यक्त करती हुई कविता....

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  6. आराधना जी, इस तर्क-वितर्क में एक पहलू ये भी है...कि आज के दौर में ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित है..जो इस प्रकार के कुतर्क देते हैं...
    आज के समय में नारी शिक्षित और सशक्त है...
    हां...इस दिशा में अभी काफ़ी कुछ किये जाने की ज़रूरत भी है.

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  7. कुतर्की भी अपने मन की कहाँ कर पाती मुक्ति जी !

    नारी मन की अनकही को शब्द मिल जाते हैं आप की कविताओं में.
    @शाहिद ji...आज महिलाएं शिक्षित है मगर सशक्त महिलाओं की संख्या आज भी सीमित है!

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  8. आराधना जी,
    सहमत हूँ आपसे, कविता बहुत पसंद आयीं...काफी गहराई है...बहुत ही अच्छी है

    अल्पना जी ने सही कहा,
    आज महिलाएं शिक्षित है मगर सशक्त महिलाओं की संख्या आज भी सीमित है!

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  9. साथियो !
    रचनाकार की बात में बल है। भारतीय दार्शनिक गौतम का "न्याय-शास्त्र" सारे संसार के लिए एक महान उपलब्धि है । तर्कशास्त्र उसी की एक शाखा है। तर्कशास्त्र की कुछ प्रमेय हैं। उनके माध्यम से सत्य तक पहुंचना आसान होता है। संसार भर के न्यायाधीश न्याय के लिए उसी की मदद लेते हैं। वस्तुत: तर्कशास्त्र तानाशाहों, अंधभक्तों, धर्मांधों की ठगविद्या की राह में रोडा़ रहा है। इस विद्या का व्यवहारिक जीवन में जितना प्रयो़ग होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है। भारतीय समाज में सूद्रों और नारियों के दीन-हीन दशा का एक बहुत बडा़ कारण यह भी रहा है।

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  10. "पर जीवन में एक मोड़ के बाद
    अपने मन का कर पाना कठिन होता है......"
    माना....
    कि ये बात एक गहरा-सच नहीं है,,,
    लेकिन ये झूठ भी तो नहीं है....
    खैर
    बहुत ही भावपूर्ण नज़्म कही है
    यथार्थ को बहुत ही करीब से समझाने की
    कामयाब कोशिश....
    आभार .

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  11. बढ़िया कविता...जिस दिन नारी यह समझ ले कि कब तक सहना और कब क्या कहना, उस दिन से सब कुछ बदल जायेगा.

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  12. i liked your posts.. but i was just curious as to which type of feminist are you? do you believe that men need to be castigated in order to achieve women's liberation ?

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  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. बचपन से कुतर्की होती तो भी अपने मन की नहीं कर पाती मगर एक संभावना के द्वार जरूर खोल देती।
    --बेहतरीन और सार्थक कविता के लिए बधाई।

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  15. बहुत शशक्त रचना ... औरत मन को आपसे बेहतर कौन समझ सकता है ... सच लिखा है बहुत ...

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  16. bhasha saral..lehza chusta..baat bhi poori ..samjha adhuri..kyunki gudhiya ghar ki nora ko nahi janta.. :( ..bahrhaal unhe jankar fir aunga..

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  17. Oh..bahut sundar!' Doll's House' ka ref bade prabhavi dhang se istemal kiya hai!

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  18. रचना बस्तुस्थिति की भाव पूर्ण अभिव्यक्ति है ।

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  19. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  20. ji mil gayi.."doll,s house ki nora mujhe..aur kavita poori ghus gayi bheje me.. :)

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