सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

मरीचिका


खुद के बनाए सपनों के महल
कुछ खुशफहमियाँ 
कुछ जानबूझकर अनदेखा करना
आँखें बंदकर चलना
अनचाही मंजिल पर पहुंचकर पछताना,
मरीचिका है ये, मृग मरीचिका
प्रेम, भावनाएँ, भली बातें
दुनिया इतनी भली नहीं, जितनी लगती है
तुम उतनी सुखी नहीं, जितनी दिखती हो
क्यों करती हो ये नाटक?
भला इसी में है कि इस भ्रमजाल से निकल आओ,
दुनिया को अपनी नज़र से देखने वाली औरत
इस ढोंग से बाज आओ
वरना एक दिन पछताओगी
सुखी जीवन का नाटक करते-करते ऊब जाओगी
और निकलने की राह भी ना पाओगी.