जो लोग आधुनिक कविता को जानते हैं, उन्हें चंद्रकांत देवताले के बारे में बताने की ज़रूरत नहीं है और जो लोग जानना चाहते हैं, वे यहाँ से कुछ जानकारियाँ पा सकते हैं. मैं आधुनिक हिन्दी साहित्य के विषय में अधिक नहीं जानती और इत्मीनान से साहित्य पढ़ने का कभी मौका नहीं मिला, लेकिन नारी-विमर्श में रूचि होने के कारण समय-समय पर औरतों के बारे में और औरतों के द्वारा लिखी हुयी कविताएँ पढ़ने को मिलती रहती हैं.
चंद्रकांत जी की औरतों पर लिखी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं. मुझे वे सभी अच्छी लगीं. उनकी सबसे बड़ी विशेषता है- उनकी सुगमता, समकालीन सामाजिक विषयों पर सीधा वार. और उससे भी अच्छा लगता है सामाजिक व्यवस्था के प्रति रोष के साथ मानवीय भावनाओं के प्रति स्नेह. सरोकारों के साथ मानवीय प्रेम ही उनकी नारी-सम्बन्धी कविताओं को पठनीय बनाता है.
मैं कोई साहित्य समीक्षक नहीं हूँ. एक पाठक के रूप में जो समझ में आया लिख दिया. मुझे उनकी एक कविता बहुत अच्छी लगी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ. उनकी अन्य कविताएँ कविताकोश में पढ़ी जा सकती हैं.-
बेटी के घर से लौटना
बहुत ज़रूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी ज़ुबान
बाहर हँसते हुए कहते-कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना .
चंद्रकांत जी की औरतों पर लिखी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं. मुझे वे सभी अच्छी लगीं. उनकी सबसे बड़ी विशेषता है- उनकी सुगमता, समकालीन सामाजिक विषयों पर सीधा वार. और उससे भी अच्छा लगता है सामाजिक व्यवस्था के प्रति रोष के साथ मानवीय भावनाओं के प्रति स्नेह. सरोकारों के साथ मानवीय प्रेम ही उनकी नारी-सम्बन्धी कविताओं को पठनीय बनाता है.
मैं कोई साहित्य समीक्षक नहीं हूँ. एक पाठक के रूप में जो समझ में आया लिख दिया. मुझे उनकी एक कविता बहुत अच्छी लगी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ. उनकी अन्य कविताएँ कविताकोश में पढ़ी जा सकती हैं.-
बेटी के घर से लौटना
बहुत ज़रूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी ज़ुबान
बाहर हँसते हुए कहते-कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना .