रविवार, 24 अक्टूबर 2010

वूमेन ओनली- मेट्रो में औरतों के लिए लेडीज़ कोच

(पिछले दिनों दिल्ली मेट्रो में एक लेडीज़ कोच आरक्षित कर दिया गया. मुझे नहीं लगा था कि इससे कोई ख़ास फर्क पड़ेगा. पर जब मैंने पहली बार उससे यात्रा की तो जो भाव मन में उठे, उन्हें ही यहाँ लिख दिया.)

पहले-पहल 'वूमेन ओनली' देखकर
मन ठिठका
इस धरती पर ऐसी भी जगह हो सकती है
जो आरक्षित हो केवल औरतों के लिए
'नहीं हमें आरक्षण नहीं चाहिए'
बोला गर्वित मन
लेकिन,
याद आ गयी वो धक्का-मुक्की
भीड़-भाड़ की आड़ में
छेड़छाड़ औरतों के शरीर से
और विरोध करने पर उन्हें ही उलाहना
"छूए जाने का इतना डर है तो घर में बैठें
या चलें अपने निजी वाहन से"

अंदर चढ़ी तो देखा
इत्मीनान से भरा एक माहौल
आत्मविश्वास से चमकतीं लड़कियाँ
कुछ खड़ी, कुछ बैठीं
बेहिचक ठहाके लगाती हुईं
आराम से बैठी औरतें
आपस में बतियाती हुईं,
पसरा हुआ सबके बीच एक बहनापा
अनजाने ही सही

एक लेडीज़ कम्पार्टमेंट से
कितना फर्क पड़ सकता है
बाहर निकलने वाली औरतों के जीवन में,
एक स्पेस, जो उनका अपना है
जो स्कूल नहीं, कॉलेज नहीं, घर नहीं, आफिस नहीं,
एक ऐसी जगह, जहाँ औरत सिर्फ औरत है
और जहाँ बैठकर, वह कुछ पल के लिए ही सही
महसूस कर सकती है
अपने आप को.

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

औरत



मेरे पिताजी कैफ़ी आज़मी के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसलिए नहीं कि वो हमारे शहर आजमगढ़ के थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने उस समय लहरों के उलट तैरने की कोशिश की, जब ऐसा सोचना ही पाप माना जाता था. उनकी नज्मों की एक किताब थी हमारे यहाँ, जिसमें मैंने उनकी नज़्म "औरत" पढ़ी थी.  १९४० में लिखी ये रचना औरतों के लिए लिखी गयी एक क्रांतिकारी कविता थी. जब जंग पर जाने वाले आदमी अपनी औरतों को घर संभालने और अपनी रक्षा करने की बात कह रहे थे, तब उन्होंने उससे अपने साथ चलने के लिए कहा था. उस माहौल से अपने को बचाने के बजाय लड़ने को कहा था. 
मेरे पिताजी ने भी बचपन से मुझे लड़ने के लिए तैयार किया. इस तरह कि जैसे जंग पर जाना हो. महत्वाकांक्षी औरतों के लिए ज़िंदगी जंग से भी बढ़कर होती है, ये बात शायद बाऊ जी ने बहुत पहले ही समझ ली थी. 
आज भी ये कविता उतनी ही प्रासंगिक है. जब औरतों को बाहर निकलने पर छेड़छाड़ और बलात्कार तक झेलना पड़ता है और समाज के ठेकेदार कहते हैं कि औरतों को अपनी रक्षा करनी है, तो उन्हें घर में ही रहना चाहिए. मेरे ख्याल से ये कविता हर लड़की को उसके बचपन में ही पढ़ानी चाहिए, ताकि वो सभी विपरीत  परिस्थितियों का सामना बहादुरी से कर सके, भागकर घर में पनाह लेने के बजाय लड़ सके.
इस नज़्म के कुछ अंश, जो मुझे बहुत पसंद हैं, यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ---

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे


इसका वीडियो यू ट्यूब पर कैफ़ी जी की आवाज़ में ही है. लिंक है--
http://www.youtube.com/watch?v=w61ELibfQiY