सोमवार, 27 अगस्त 2012

आलोक धन्वा और विजय सिंह की दो कवितायें

(अपने शोध-कार्य में व्यस्त होने के कारण कम ही कविताएँ पढ़ पाती हूँ, लेकिन कभी-कभी कोई कविता इतनी अच्छी लगती है कि उसे सबको पढ़ाने का मन होता है. पिछले दिनों एक लड़की के 'भागने' को लेकर एक उच्च पड़ पर बैठे पुलिस अधिकारी का विवादास्पद बयान मीडिया में ख़बरों में था. हमेशा की तरह लोग उस बात को भूल गए. मैं भी भूल गयी थी. आज फिर से ये दोनों कविताएँ पढीं, तो मुझे वो प्रसंग याद आ गया. कितनी प्रासंगिक हैं ये कविताएँ)


भागी हुई लड़कियां / आलोक धन्वा
-------------------------------
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रमिकाओं में !

अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा

कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?

वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियां होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में

लड़की भागती है
जैसे फूलों गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगमग स्टेडियम में


भागती हुई लडकियां/ विजय सिंह
----------------------
भागती हुई लडकियां
अब भी भाग रही हैं
और
नए साल में भी भागेंगी
खूब भागेंगी
कहीं वह पानी की तरह
किसी को भिगोते हुए भागेंगी
तो कहीं हवा की तरह


लेकिन यह तय है
लडकियां जब भी भागेंगी

धरती की एक नयी आजादी के लिये
भागेंगी