गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मन विद्रोही

डेढ़ साल पहले जब मैंने ये ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तो दो कवितायें लिखी थीं, एक लड़की के बारे में जिसका मन बंधनों को नहीं मानना चाहता... उड़ जाना चाहता है कहीं दूर तक... पर फिर माँ की कही बातें याद आ जाती हैं... और मन मसोसकर रह जाती है... एक छोटी सी लड़की के मन की बात है... सीधी-सादी सी...
(१.)
माँ कहती थी -ज़ोर से मत हँस
तू लड़की है... 
धीरे से चल,
अच्छे घर की भली लड़कियाँ
उछल -कूद नहीं करती हैं,
मैं चुप रहती...
माँ की बात मान सब सहती,
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही
हँसता जाता ,चलता जाता,
कंचे खेलता ,पतंग उड़ाता
डोर संग ख़ुद भी उड़ जाता, 
तुम लड़के हो ,
तुम क्या जानो?
कैसे जीती है वो लड़की,
जिसका अपना तन है बंदी 
लेकिन अड़ियल मन विद्रोही. 
(२.)
माँ कहती थी
सूनी राहों पर मत निकलो
क़दम क़दम पर यहाँ भेड़िये
घात लगा बैठे रहते हैं, 
मैं चुप रहती 
और सोचती
ये दुनिया है या है जंगल... 
अब माँ नहीं जो मुझको रोके
कोई नहीं जो मुझको टोके, 
मैं स्वंतत्र हूँ ,अपनी मालिक
किसी राह भी जा सकती हूँ ,
लेकिन अब भी माँ की बातें
हर दिन याद किया करती हूँ, 
सूनी राहों से डरती हूँ
और अंधेरे से बचती हूँ, 
कंचे खेलना ,पतंग उड़ाना
अब लगती है बातें बीती...
जाने किस कोने जा बैठा ?
मेरा अड़ियल मन विद्रोही. 

शनिवार, 17 जुलाई 2010

धूल

धूल साथी है
मेहनतकश मजदूरों की, गरीबों की,
बड़े घरों की शानदार बैठकों में
धूल नहीं होती ,
उसे रगड़-रगड़कर
साफ़ कर दिया जाता है,

धूल में होते हैं
अनेक रोगाणु -कीटाणु
जैसे शहर की झोपड़पट्टियों में पलते
कीड़ों जैसे गंदे-बिलबिलाते लोग,

झोपड़पट्टियाँ...
शानदार शहरों की धूल हैं
इन्हें रगड़-रगड़कर
साफ़ कर देना चाहिए ।