शनिवार, 25 दिसंबर 2010

हँसती हुयी औरत दुखी नहीं होती

सुनो, एक कविता लिखो
या यूँ ही कुछ पंक्तियाँ
जिन्हें कविता कहा जा सके
और इसी बहाने याद रखा जाए

लिखो तुम औरतों के बारे में
उनके दुःख-दर्द और परेशानियाँ
उनकी समस्याओं के बारे में
पर उनकी खुशियों के बारे में कभी मत लिखो

उनकी सहनशीलता, उदारता और
ममता के बारे में लिखो
उनके सपनों, आकांक्षाओं और इच्छाओं के बारे में
कभी मत लिखो.

बता दो दुनिया को औरतों के दमन के बारे में
उन पर हुए अत्याचारों को लिखो
दमन से आज़ादी के संघर्ष की गाथा
कभी मत लिखो

लिखो औरतों के आँसुओं के बारे में
उनके सीने में पलने वाली पीड़ा
पर उनकी खुशी के बारे में
कभी मत लिखो

औरत के आँसू ये बताते हैं
कि वो कितनी असहाय है
त्याग और तपस्या की मूर्ति
उसे ये आँसू पी लेने चाहिए

इन दुःख दर्दों को
मान लेना चाहिए अपनी नियति
हँसने के अपने अधिकारों के बारे में
नहीं सोचना चाहिए

कि हँसती है जो औरत खिलखिलाकर
दुखी नहीं होती
इसलिए औरत नहीं होती 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अभिनेत्री- रघुवीर सहाय की एक कविता

अभिनेत्री जब बंध जाती है
अपने अभिनय की शैली से
तो चीख उसे दयनीय बनाती है
पुरुषों से कुछ ज्यादा
औ' हँसी उसे पुरुषों से ज़्यादा बनावटी
यह इस समाज में है औरत की विडम्बना
हर बार उसे मरना होता है
टूटा हुआ बचाती है
वह अपने भीतर टूटफूट के
बदले नया रचाती है
पर देखो उसके चेहरे पर
कैसी थकान है यह फैली
हँसने रोने को कहती है
उससे पुरुषों की प्रिय शैली
इन दिनों से कुछ ज़्यादा
औरत का चेहरा कह सकता है
पर क्या उसकी ऐसी आज़ादी
पुरुष कभी सह सकता है
वह उसे हँसाता रहता है
वह उसे सताता रहता है
वह अपने सस्ते रंगमंच पर
उसे खेलाता रहता है
औरत का चेहरा है उदास
पर वह करती है अट्टहास
उसके भीतर की एक गरज
अनमनी चीख बन जाती है
वह दे सकती थी कभी कभी
अपने संग्रह से गुप्तदान
पर दया सरेबाज़ार वही
खुद एक भीख बन जाती है.