सोमवार, 11 मई 2009

माँ ... ...!


जिंदगी यूँ ही चलती जाती है
बिना किसी सहारे के
जैसे तैरता हो कोई पत्ता
समुद्र की लहरों पे
आती है जब-जब भी
तूफ़ान की आहट
एक शब्द आता है
होठों पर
माँ ...
कट जाते हैं रास्ते
कठिन हों कितने ही
ठोकर लगती है
तो याद आती है
माँ ...
माँ की आँखें दिए की लौ सी हैं
माँ की बातें गीता जैसी हैं
माँ है तो सारी खुशियाँ हैं
बिन माँ के हर खुशी अधूरी है
लौट सकती हो तो लौट आओ
माँ ...
तुम बिन जिंदगी अधूरी है ...















सोमवार, 4 मई 2009

शीर्षकहीन

आज मुझे अपना ब्लॉग लिखते हुए लगभग चार महीने हो गए हैं और पहली बार मैं कविता नहीं लिख रही हूँ । मुझ पर किसी ने किसी अन्य की कविता से 'ऊर्जा 'उधार लेने का इल्जाम लगाया है । बस ,इसे सीधे-सीधे चोरी न कहकर एक सभ्य सा शब्द रख दिया । मैं किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती ,हो सकता है कि उनका उद्देश्य मुझे दुःख पहुँचाना न रहा हो ,पर मुझे दुःख हुआ तो मैंने कह दिया .ऐसे ही जैसे मैं अनायास ही कविता कह जाती हूँ .

शनिवार, 2 मई 2009

सोचकर तो देखें (मजदूर-दिवस पर)

कभी सोचते हैं हम
फाइव-स्टार होटलों में
छप्पन-भोग खाने से पहले
कि कितने ही लोग
एक जून रोटी के बगैर
तड़प-तड़प के मरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
आलीशान मालों में
कीमती कपड़े खरीदने से पहले
कि कितने बच्चे और बूढे
फटे -चीथड़े लपेटे
गर्मी में झुलसते
सर्दी में ठिठुरते हैं ।

कभी सोचते हैं हम
अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों को
सैकड़ों लीटर पानी से
नहलाने से पहले
कि इसी देश के किसी कोने में
लोग बूँद-बूँद पानी को तरसते हैं ।

सोचते हैं हम कि
अकेले हमारे सोचने से
क्या फर्क पड़ेगा
कभी सोचकर तो देखें
एक बार तो मन ठिठकेगा...


(यह कविता पिछले वर्ष मजदूर दिवस पर लिखी थी...आज भी कुछ नहीं बदला है...और आगे भी शायद नहीं बदलेगा...पर, क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ??)